Wednesday, May 23, 2018

स्वयंसिद्धा- एक



उसकी टाइमलाइन पर एक साथ कई तस्वीरें आईँ हैं, भरतनाट्यम की पारंपरिक, पीले रंग की पोशाक में. चेहरे पर वैसी ही मासूमियत जैसी पच्चीस बरस पहले थी. मन आया नज़र उतार लूं. हालांकि ये तस्वीर पच्चीस बरस पहले मेरे सामने आई होती तो मन चाहकर भी उतना उदार नहीं हो पाता. मसला केवल टीनएज का ही नहीं उस बचकाने कॉम्पीटीशन का भी था जो कभी हम दोनों के बीच नृत्य की आड़ी-तिरछी मुद्राओं को लेकर हुआ करता. यूं हम दोनों में नृत्य विधिवत सीखा किसी ने नहीं था, लेकिन अपनी छोटी सी दुनिया में दो अंगुल प्रसिद्धि की लड़ाई बदस्तूर थी. वो ये समझने की उम्र नहीं थी कि जो मेरे लिए शौक है उसके लिए उसका जुनून. लेकिन आज व्हाट्सएप्प पर अलग से आई तस्वीरों को बार-बार निहार रही हूं, उसके मैसेज को कई बार पढ़ा है, उसने भरतनाट्यम की फिफ्थ इयर की परीक्षा पास कर ली है, और तीन साल और वो डांस ग्रेजुएट हो जाएगी. कोई कहे 40वीं पायदान पर दस्तक देने वाली औरतों के लिए कौन सी बड़ी अचीवमेंट हो गई जी ये, लेकिन उसके लिए उल्टे पैर पहाड़ चढ़ने जितना दुष्कर था ये सब.

दोस्तियां सचमुच रेल की पटरी सी होती हैं, जाने कहां की छूटी कब आकर वापस लिपट जाती हैं. कुछ बरस पहले इसने भी यूं ही मैसेज बॉक्स में दस्तक दी थी. कागज़ के उस टुकड़े की तस्वीर के साथ जिसमें फेयरवेल पर मेरी ज़बरदस्ती की तुक मिलाई कविता थी, क्लास की सारी लड़कियों के नाम मिलाकर लिखी गई. जाने कैसे घर की सफाई में इसके हाथ आ गई. अपनी गृहस्थी के अनुराग में सराबोर मेरी बातें शायद औपचारिता में ही लिथड़ी रहती अगर माई हस्बैंड इज़ नो मोरके पांच शब्दों ने मेरे रोंगटे ना खड़े कर दिए होते. लेकिन सहानुभूति के मेरे शब्दों को इस बार उसके तटस्थ से, इट्स ओके, ही वॉज़ एन अब्यूसिव एल्कोहलिक ने फूंक सा उड़ा दिया. उसे किसी की औपचारिक सहानुभूति की ज़रूरत नहीं थी, जितना रोना था वो रो चुकी थी, जितना सहना था सह चुकी. बड़ी मुश्किल से ज़िंदगी की बागडोर उसके हाथों में आई थी, अब उसे अपने खोए हुए साल वापस चाहिए थे, वक्त की रेस में वक्त को ही हराना था.  

दसवीं के बाद जिस मोड़ पर हमारे रास्ते अलग हुए पुराने दोस्तों से जुड़ पाने की तकनीक सुलभ नहीं थी. हम सबकी आंखों में जब करियर के सपने थे उसके पास थी रूढ़िवादी पिता की हज़ार बंदिशें और सौतेली मां की बेबसी. इक्कीस की उम्र में जबरन ब्याह दी गई शराब के ठेके चला रहे स्थानीय नेता के परिवार में. पति पंचायत समिति का अध्यक्ष और शराबखोर. बहुओं के घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी. उसने एक सामान्य ज़िंदगी की सारी उम्मीदों को परे सरकाया और साल भर के अंतराल पर हुए दोनों बच्चों को पालने लगी. हर रात नशेड़ी पति के ताने सुनती और दिन भर अपने सपनों को सहला-सहलाकर ज़िंदा रखने की कोशिश करती. हालात और बिगड़े तो पति को डॉक्टर के पास ले जाना शुरु किया लेकिन सत्ता, शराब और बुरी सोहबत ने जीने की सारी मोहलत एकाएक छीन ली. पति के दोनों भाइयों की मौत पहले ही हो चुकी थी.  32 की उम्र, दो छोटे बच्चे, हताश सास- ससुर और उनके उजड़े साम्राज्य का खंडहर.....लेकिन उस सपनीली आंखों वाली लड़की ने खुली आंखों वाले सपने देखे थे. घर के एक हिस्से को किराए पर चढ़ाया लॉ में ग्रेजुएशन किया, एक लॉ फर्म में काम शुरु किया फिर साथ में एलएलएम में भी एडमिशन लिया. अपनी सीमित आमदनी और किराए से बच्चों की अच्छी परवरिश कर रही है. उसका मैसेज मुझे उन्हीं दिनों आया था, अपनी मास्टर्स थीसिस लिखने में उसे मेरी मदद चाहिए थी. इतना सब करने के बाद सबसे पुरानी ख्वाहिश उसे दिन रात बेचैन किए जा रही थी, वो सपना जिसका ज़िक्र उसके पिता को भी भड़का देता था. सास-ससुर का भड़कना भी लाज़िमी था, दो बच्चों की विधवा मां डांस सीखेगी? लेकिन आन्ध्र-महाराष्ट्र के बॉर्डर पर उस छोटे से शहर में उस लड़की को अब कोई बंदिश रोक नहीं सकती थी. उसने अपना प्रारब्ध अपने हाथों लिखना सीख लिया था. डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में वकालत कर रही है, एक स्थानीय लॉ कॉलेज में गेस्ट फैकल्टी है और अब भरतनाट्यम के छठे साल की स्टूडेंट भी.

मैं वक्त को उसके हाथों मजबूर होता देख रही हूं, वो एक-एक कर उससे अपने छीने तमाम साल वापस ले रही है.
इन दिनों कोर्ट और कॉलेज दोनों बंद हैं, वो एक-डेढ़ महीने से ससुराल के गांव में है, खेती-बाड़ी का हालचाल लेने. सिग्नल बहुत मुश्किल से मिला है लेकिन हमारी बातें ख़त्म नहीं हो रही.

आगे क्या प्लान?

मुझे अपनी डांस एकेडमी खोलनी है और हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करनी है, नागपुर या फिर हैदराबाद बेंच, लेकिन सास-ससुर जाना नहीं चाहते. वो बेहद पुरातनपंथी हैं, बहुत सख्ती की मेरे साथ लेकिन हालात के मारे हुए, उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकती.

मैं आखें बंद करती हूं उसे हाईकोर्ट की बेंच पर बैठा देख पाने के लिए, अपनी डांस एकेडमी में सबको अपने ताल पर थिरकाते देख पाने के लिए. लेकिन एक सवाल है जो बार-बार परेशान किए जा रहा है.

उसे किसी का सहारा नहीं चाहिए, ये बात उससे ज़्यादा मैं समझती हूं. लेकिन प्यार? वो तो सबका हासिल होना चाहिए ना. फोन पर ये सुनकर उसकी आवाज़ हिचककर शांत हो गई है. प्यार तो कभी मिला ही नहीं, इसलिए चाहिए ज़रूर. फिर हौले से बताया,  कोई है जो अब भी उसका इंतज़ार कर रहा है. हमारी ही क्लास का एक लड़का. उसने ख़बर भी भिजवाई थी. अपने क्लास के लड़कों की अब कोई याद नहीं मुझे इसलिए उसके साथ किसी चेहरे को खड़ा कर पाने में असमर्थ पाती हूं ख़ुद को. लेकिन मन में एक मीठी सी उम्मीद जागती है.

फिर?

पता नहीं, शराब के नशे से दहकती आंखों की याद क़दमों को रोक लेती है, वैसे भी जिस समाज में मैं हूं, वो दूसरे लेवल की लड़ाई हो जाएगी ना. लेकिन मैने किसी भी बात के लिए ख़ुद को ना कहना बंद कर दिया है अब उसकी खनकती हंसी मेरे फोन को गुलज़ार किए जाती है.

मैं जी भरकर मुस्कुरा लेना चाहती हूं

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