सात-आठ बरस का लड़का शाम को खेलकर थका-मांदा
पसीने से लथपथ घर लौटता है. दौड़ने-भागने के आधिक्य से उसकी दोनों टांगें कांप रही
हैं. मां बड़े प्यार से उसके कपड़े बदलवा कर हाथ-मुंह धुलाकर उसे अपने बिस्तर पर
लिटा लेती है, फिर कोमल हाथों से उसके पैरों में तेल लगाने लगती है. आराम मिलते ही
बच्चे की आंखें मुंदने को आती हैं कि मां प्यार से उसका माथा सहलाकर कहती है, “बुढापे में तुझे भी
अपनी मां की इसी तरह सेवा करनी होगी, करेगा ना राजा बेटा.” आनंद के अतिरेक में लड़का हां में सिर
हिलाना ही चाहता है कि पास खड़ी दादी चिहुंक उठती है, “तुम्हारी कैसे, तब तक तो बीवी आ जाएगी,
उसकी सेवा करेगा ना, उसी की सारी बात मानेगा.” बात का इशारा भले ही मां को ओर हो लेकिन
लड़का चोट अपने उपर ले बैठता है. खिलखिलाहट के बीच उसे आभास हो जाता है कि उसके
लिए किसी बड़े निषिद्ध का नाम ले लिया गया है. वो नींद भूल मां से लिपट जाता है, “मैं तो बस अपनी
मम्मी की सेवा करूगां, बस्स मम्मी का बेटा रहूंगा और कुछ नहीं.” मां का सिर मैं ना
कहती थी वाले अंदाज़ में गर्वोन्नत हो उठता है.
बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया है लेकिन अब भी शर्मीला
सा है. पढ़ाई-लिखाई में वो अक्सर पिता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता, अपनी बात
सलीके से रखना भी नहीं सीखा उसने. फिर एक दिन पिता उसपर झल्ला उठते हैं, “ऐसे डरपोक रहने से
क्या होगा, क्या बड़ा होकर बीवी के पेटिकोट धोते रहना है?” बेटा सहम जाता है, उसे समझ में आ जाता है
कि जीवन में कुछ नहीं कर पाने वाले को बीवी के पेटिकोट धोने होते हैं. लेकिन वो तो
लड़का है, कुछ नहीं करना उसके लिए विकल्प नहीं. वो इस प्रण के साथ पढ़ाई में जुट
जाता है कि चाहे कुछ भी हो जाए उसे बड़ा होकर बीवी के कपड़ों को तो हाथ भी नहीं
लगाना.
मां-बाप घर पर नहीं है, लड़का पढ़ाई में व्यस्त
है. घर में कुछ मेहमान आ गए हैं. लड़का उन्हें सम्मान से बिठाकर पानी और चाय का
इंतज़ाम करता है. मां-बाप के लौटते ही मेहमान बेटे की तारीफ शुरु कर देते हैं. “कितना सीधा लड़का है
आपका, आज के ज़माने में इतना भोलापन. बिल्कुल लड़कियों सा शर्मीला और गुणी, लड़की
होता तो हम आज ही इसे बहु बनाकर ले जाते”. लड़का शर्म से और सिकुड़ जाता है. उसे समझ आ जाता
है कि अच्छे काम की जगह उसने कुछ ऐसा कर दिया है जिसकी उससे अपेक्षा नहीं थी. उसने
आगे से अपना सारा ध्यान जनाना और मर्दाना कामों का विभाजन ठीक-ठीक समझने में लगा
देने का फैसला किया है.
फिर भी वो लड़का है, घी का लड्डू तो टेढ़ा हो फिर
भी भला ही लगता है. पढ़ाई में थोड़ा औसत था ज़रूर लेकिन अपनी मेहनत से अच्छी जगह
नौकरी पा गया है. उसपर देखने-भालने में ठीक-ठाक, शांत और सुशील भी. मां को हर पल
ये आशंका खाए जाती है कि कहीं कोई लड़की उसे फंसा ना ले. हालांकि उनको पूरी उम्मीद
है कि उनसे पूछे बिना बेटा पजामे का नाड़ा तक नहीं बदलेगा लेकिन फिर ज़माने का
क्या भरोसा.
ऐसे कमाऊ, खानदानी, सर्वगुण सम्पन्न लड़के के लिए एक
पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, स्मार्ट, सुलझी हुई, सुशील और घरेलू कन्या की तलाश है जो परिवार में
पानी में शक्कर के जैसी घुल जाए.
है कोई आपकी नज़र में?
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