उसके रहते अलार्म लगाकर सोने की ज़रूरत नहीं
होती, आंखें उसके कॉलबेल बजाने से तय समय पर ही खुलती हैं. अगर गांव नहीं गई हो तो
साल भर में 12-15 से ज़्यादा छुट्टियों की उसको दरकार नहीं पड़ती. दरवाज़े पर पड़ी
दूध की थैलियां उठाकर जब वह अंदर घुसती है, मैं चाय का पानी चढ़ा चुकी होती हूं.
उसके बगल में खड़े होने पर अपने पांच फुट से थोड़ा उपर उठा कद भी बेहद लंबा जान
पड़ता है. उसकी सभी बातें समझ पाने में अभी भी ढेर सारी मशक्कत करनी पड़ती है. हालांकि
काम की तलाश में पहली बार दिल्ली आए उसे पन्द्रह साल हो चुके हैं, उसने हिंदी भाषा
के उतने ही शब्द सीखने स्वीकार किए जितने से काम कर रहे घरों की गृहस्वामिनियों से
कामचलाऊ वार्तालाप हो सके. गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि शारीरिक तौर पर बहुधा अशक्त पति
से मेहनत-मशक्कत वाला देहाती काम नहीं होता. यहां आकर पति को गाड़ियों की साफ-सफाई
का काम मिला जिससे झुग्गी में रहने का किराया भी बमुश्किल निकलता.
तो दुधमुहीं बच्ची को सास के साथ गांव वापस भेज
इसने घरों में काम करना शुरु किया. उस बात
को काफी साल बीत गए, छोटे हिचकोलों को छोड़ दें तो इनकी गृहस्थी कभी पटरी से नहीं
उतरती. दो साल पहले झुग्गी से इनका प्रमोशन खोली में हो चुका है. पति सुबह चार बजे
उठकर बंधी-बंधाई गाड़ियों की सफाई करने निकल पड़ता है. ये छह से कुछ पहले उठती है
और साढ़े छह मेरे दरवाज़े पर दस्तक देती है. फिर लिफ्ट से ऊपर-नीचे करतीं चार घरों
के काम निबटाती दो ढाई बजे वापस घर पहुंचती है. पति गाड़ियों की सफाई से नौ बजे तक
लौटकर नाश्ता-पानी, साफ-सफाई कर इसके लिए खाना बनाकर इंतज़ार करता है. नहा धोकर,
खाना खाकर, ये अपनी दूसरी शिफ्ट के लिए निकल पड़ती है. पति के पास अब काफी वक्त है,
वो रात के खाने की तैयारी करता है, पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता है, ज़रूरत पड़ी
तो उन्हें संभालने का भार भी उठाता है, इनके अपने तीनों बच्चे क्योंकि दादी के साथ
गांव में हैं, पढ़ते-लिखते ऊंची क्लास में पहुंच गए हैं. बड़ी लड़की इस साल कॉलेज
में आ जाएगी, वो दादी के साथ घर संभालती है, छोटे भाई-बहन को भी. बैंक का अकाउंट
उसी के नाम पर है, खर्चे पानी का हिसाब-किताब भी. उस घर की औरतें जीवट होने का
वरदान साथ लाई हैं. पिछले बरस बड़ी बेटी को गले में अल्सर से कैंसर होने का शक
हुआ. मां-बाप सारी शक्ति लगाकर चार महीने इलाज कराते रहे, शक गलत निकला, एक ऑपरेशन
के बाद वो ठीक हो गई.
‘जो पइसा दिया महीना-महीना काट लेना’, इसने गांव से
लौटकर मुझसे कहा था.
‘रहने दो, वापस नहीं लेने थे’.
‘अच्छा’, उसने इतना भर कहा और चली गई. मुझे लगा अगर
मैंने सारे पैसे उसी दम भी मांग लिए होते तो भी यह केवल ‘अच्छा’ ही कहती.
‘आपका पास कंपूटर वाला पुराना फोन है,
बेटी के भेजना है, पढ़ाई का लिए’ पिछले महीने उसने मुझसे पूछा.
‘ढूंढती हूं’, मैंने कह तो दिया फिर चिंता में पड़ गई,
पिछला फोन पांच साल तक घसीटा था, किसी काम का नहीं रहा अब, दे दिया तो ये ही
गालियां देगी.
‘ऊपर वाली दीदी ने नया खरीद दिया, दो दिन बाद मुझे
सूचना दे दी गई, पुराना फोन खराब होता, उहां गांव में कोन ठीक करता. महीना-महीना
कटा लेगी’
इस किस्म के सारे फैसले घर में इसके ही होते हैं.
इन्होंने हेनरी फेयोल रचित प्रबंधन के 14
सिद्धांत कभी नहीं पढ़े. इन्हें नहीं पता Division of Work according to one’s
ability and interest क्या
बला है. इनकी जिंदगी में इन गूढ़ सिद्धांतों की कोई जगह नहीं. एक गृहस्थी है, दो
लोगों की ज़िम्मेदारी, जिसे दोनों अपने-अपने के भर का उठा रहे हैं, बस. एक रिश्ता
है, दो लोगों के बीच का, जिसे दोनों अपने-अपने हिस्से का पूरा दे दे रहे हैं, बस.
मेरे किचन में धुले बर्तन जल्दी-जल्दी समेटे जा
रहे और फोन कई बार ‘जिंगल
बेल’ की
रिंग टोन बजाता है. मेरे बच्चे हंसते हुए कहते हैं, “दीदी क्रिसमस तो कब का बीत गया, अब तो बदल
दो इसे”. वो
कुछ नहीं समझ पाने वाली भंगिमा में वापस से हंसती है, बर्तनों को पोंछ-पोंछ कर जगह पर लगाने
लगती है.
पौन आठ बजने को हैं, और दिनों से काफी देर. देरी
जान पति बिल्डिंग के नीचे पहुंच गया होगा, साथ वापस ले जाने.
आज आटा फिर गीला गूंद दिया है उसने, बेलते वक्त
हाथों में चिपक गए आटे को दिखाते हुए मैं उसे छेड़ती हूं,
“देखो कितनी दिक्कत हो रही है बनाने में, वैसे तुम
कैसे समझोगी, तुम्हें कौन सा बनाना पड़ता है, तुम्हारे घर तो आदमी बनाता है”
‘ना-ना’, वो प्रतिरोध में दोनों हाथ हिलाने लगती है,
‘ऊटी नहीं बनाता वो,
बस चाउल बनाता है’ बोलते
हुए उसे हंसी आ जाती है. मैं गीले हाथों से आटा छुड़ाते वक्त देख नहीं पाती कि
शर्माने से उसकी हंसी अबीरी तो नहीं बन गई. फोन एक बार और बजा, उसने अपना झोला
हाथों में उठा लिया है.
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