उसका
नाम मुझे कभी पता नहीं चला, मेरे मुहल्ले में वो कहां रहता था ये भी नहीं जानती.
आबनूसी रंग के बीच उसकी लाल आंखें डरावनी
लगती थीं. सुबह से शाम तक वो कई बार हमारे घर के सामने से होकर आया-जाया करता और
पूरे वक्त हमारे घर की ओर मुंह किए लगातार घूरा करता. बरामदे या लॉन में अगर कोई
मर्द बैठा नहीं दिखता तो वहीं रुक कर कुछ इशारेबाज़ी भी करता. नहीं पता कि कानून
की परिभाषा में इसे ईव टीज़िंग कहते हैं या नहीं, लेकिन उसकी आंखो के भय ने अक्सर
घर से बाहर निकलते मेरे कदम रोके हैं. कई बार गेट से बाहर निकलते ही उसे देख लेने
पर उल्टे पैर घर के अंदर भी भागकर आई हूं. आज इतने सालों के बाद पहली बार इस बात
की चर्चा करने पर अपना वो डर कितना अर्थहीन लग रहा है, लेकिन उस उम्र में इस तरह
की कई छोटी-छोटी घटनाओं ने मेरे जैसी बहुत सी जीवट लड़कियों का आत्मविश्वास तोड़ा
है, आज भी तोड़ती जा रही हैं.
शुक्र
है सुप्रीम कोर्ट ने ईव टीज़िंग को आपत्तिजनक और धृणित कहा है. लेकिन ये क्या, ईव
टीजिंग को बस लड़कियों का प्यार हासिल करने की कवायद भी बता दिया. क्या लड़कियों को सड़क, बाज़ार, मुहल्ले, कॉलेज, दफ्तर में छेड़ने वाले हर लड़के का मकसद उनका प्यार पाना ही
होता है? मानसिक विकृति, यौन कुंठा, अपोषित अहम जैसे शब्दों का इससे कोई लेना देना नहीं?
मेरी एक
सहकर्मी अपने कॉलेज के दिनों में अपनी मां के साथ हॉबी क्लास के लिए निकली, एक
लड़के ने छेड़खानी कर दी. अगले दिन दोनों फिर से उसी रास्ते गए, लड़का फिर उनके
पीछे लग गया. तीसरे दिन उसका हॉबी क्लास जाना बंद कर दिया गया. वो लड़का उसके
प्यार में पागल होकर पीछे नहीं आया, उसके बाद के दिनों में वो शायद किसी और सड़क
पर किसी और शिकार का इंतज़ार कर रहा होगा.
बसों
में, ट्रेन में, भीड़-भाड़ का फायदा उठाकर लड़कियों से शरीर से अपना लिंग घिसने
वाले मर्दों को उनकी हां या ना से कोई मतलब नहीं होता. सड़क के किनारे-किनारे
बच-बच कर चल रही लड़कियों रही लड़कियों के सामने से बाइक पर आकर उनका दुपट्टा खींच
लेने वाले शोहदों को अक्सर उनकी शक्ल याद भी नहीं रहती. बाज़ार की धक्का-मुक्की के
बीच लड़कियों की छातियां दबाकर बेधड़क निकल जाने वाले मर्दों के प्लान में उनसे
रिश्ता जोड़ने का ख्याल दूर-दूर तक नहीं आता. बात-बात पर पीठ ठोंकने के बहाने
टीनएज लड़कियों की ब्रा की स्ट्रैप खींच कर आंख मारने वाले टीचर भी ज़्यादातर
शादी-शुदा ही होते हैं, कई अधेड़ भी. हरम खड़ा करने की ना तो इनकी औकात होती है ना
योजना. ये वही लोग हैं जो हर शाम अपने घर वापस जाकर हर कोने से तसल्ली कर लेना
चाहते हैं कि इनकी पत्नियों ने दिन भर घर से बाहर तांक-झांक तो नहीं की, साड़ी के
पल्लू के इधर-उधर से कुछ दिख तो नहीं गया. इनका बस चलते तो ये अपनी बीवी-बहनों के
लिए अपने घर के दरवाज़े पर तो क्या उनके सोचने की क्षमता पर भी ताले लगा दें.
इसलिए, ईव टीज़िंग के मसले पर सवाल लड़कियों का प्यार पाने की सहमति का तो है ही
नहीं. वैसे भी हमारे शहर में ये मशहूर था कि जिस लड़की के बाप-भाई जितने बड़े
लफंगे, उसके घर पर बंदिशों की पहरेदारी उतनी ही ज़्यादा.
यकीन
मानिए, ज़्यादातर लड़कों के लिए लड़कियों के छेड़ना उतना ही खामखा का काम है जितना
राह चलते कुत्ते को पत्थर से मार देना, जिससे उनकी ज़िंदगी का कुछ नहीं
बनता-बिगड़ता बस एक सैडिस्टिक प्लेज़र मिल जाता है, अहम पर थोड़ा सा मल्हम लग जाता है. ना कुत्ता
अपने पीठ पर लगे धाव की रिपोर्ट लिखाने जाता है और ना ही लड़की ना अपने चोटिल
आत्मविश्वास को दिखाकर किसी से शिकायत कर पाती है.
उन्होंने
पैदा होने के बाद से ही सीखा है कि कैसे बस उनका लिंग परिवार में हर किस्म की
सहूलियत पर उनका पहला हक निर्धारित कर देता है. उन्होंने लड़कियों के खिलाफ किए गए
हर
अपराध के बाद ‘लड़कों से ग़लती हो जाती है’ की कैफियत देते, उन्हें अपनी ओट में छुपा लेने वाले समाज के रहनुमा देखे हैं. उन्हें ज़र और ज़मीन के साथ-साथ जोरू को भी उपलब्धियों की फेहरिस्त में शामिल करना सिखाया गया है, जिसे हासिल के लिए कुछ भी कर गुज़रना जायज़ है. इन सब परिस्थितियों में पले लड़के जब लड़कियों के साथ छेड़खानी करते हैं तो वो प्यार के प्रतिदान के अभिलाषी नहीं होते बल्कि विक्षिप्तता और विकृत मानसिकता के शिकार होते हैं.
अपराध के बाद ‘लड़कों से ग़लती हो जाती है’ की कैफियत देते, उन्हें अपनी ओट में छुपा लेने वाले समाज के रहनुमा देखे हैं. उन्हें ज़र और ज़मीन के साथ-साथ जोरू को भी उपलब्धियों की फेहरिस्त में शामिल करना सिखाया गया है, जिसे हासिल के लिए कुछ भी कर गुज़रना जायज़ है. इन सब परिस्थितियों में पले लड़के जब लड़कियों के साथ छेड़खानी करते हैं तो वो प्यार के प्रतिदान के अभिलाषी नहीं होते बल्कि विक्षिप्तता और विकृत मानसिकता के शिकार होते हैं.
इसलिए, ईव
टीज़िंग की ये अदालती व्याख्या बस सतह को कुरेदने जैसी है. एक लड़की को हर रोज़ इस
तरह की इतनी सारी घटनाओं से रू-ब-रू होना पड़ता है कि एक सीमा के बाद उसकी सारी
संवेदनाएं मर जाती हैं. प्यार की उम्मीद में लड़कियों का पीछा करने वाले लड़के
मुझे इस जमात के सबसे मासूम बच्चे लगते हैं. अगर मसला सचमुच प्यार का है तो
ज़्यादातर मामलों में वो कभी भी एक सीमा से बाहर नहीं जाएंगे. ना, मैं यहां उन मामलों को कतई जस्टीफाई नहीं कर
रही जिनका अंत लड़कियों पर एसिड फेंकने या फिर उनकी हत्या कर देने पर जा होता है.
ये जघन्य कृत हैं, सरेआम फांसी पर लटका दिए जाने की सज़ा के लायक. लेकिन ये वो
एक्सट्रीम घटनाएं हैं जिनकी खबर बनती है.
मैं बात
उन घटनाओं की कर रही हूं जो हमारे आस-पास हर रोज़ घटती हैं, इतनी आम है कि हम उससे
आंखें मूंदे रहते हैं. उस पर खबर बनाया जाना तो दूर, हम उसे ग़लती मानते ही नहीं. अपनी बेटियों की
कंडीशनिंग भी हमने ऐसी कर दी है कि भुक्त-भोगी लड़की उसकी चर्चा भी किसी से नहीं
कर पाती. इस ग़लत को ग़लत साबित करने की कोशिश में वो खुद निचुड़ जाएंगी और आखिर
में नुक्सान भी उसी का होगा.
इन्द्र
ने अहल्या के साथ जो किया वो वैयक्तिक अपराध था, लेकिन इन्द्र के कुकर्म की सज़ा
जो अहल्या को मिली वो सामाजिक अपराध था. सभ्य और आधुनिक होने के बाद हम इन्द्र को
दोषी पाकर सज़ा देने की वकालत तो करते हैं लेकिन वैसा समाज नहीं बनना चाहते जो
इन्द्र के अपराध की सज़ा अहल्या को ना दे.
No comments:
Post a Comment