Sunday, January 8, 2017

डर स्वीकारने में डर क्यों?


नए साल की पहली सर्द सुबह, धुंध रेत के टीलों तक उतरी हुई है. लेकिन आज पैरासेलिंग करने देने का वादा हर हाल में पूरा होना है. हाथ हवा में लहरा कर हमें तर्क दिए जा रहे हैं, न्यू ईयर पर तो यूं भी प्रॉमिस नहीं तोड़ा करते ना.
बिटिया आत्मविश्वास से आगे निकल गई, वैसे ही जैसे ढाई साल की उम्र में मां का हाथ छोड़ क्लास टीचर की उंगलियां पकड़े आगे चली गई थी, एक बार भी पीछे मुड़े बिना. पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत उसे बस ये जानने के लिए होती रही है कि उसके पीछे मां ठीक तो है ना.

बेटा भी तेज़ी से आगे गया लेकिन किसी ना किसी बहाने तीन बार वापस आकर मां को प्यार किया, उंगलियों में उंगलियां फंसाकर यूं ही खेलता रहा है. हर बात में पहले टर्न लेने की ज़िद को छोड़कर बहन को आगे जाने दिया है उसने.



दोनों की ज़िद एक समान, सहमति मिलने के बाद आंखों में आई चमक एक समान. लेकिन मां तो ज़िद की एक समान आवाज़ों के बीच का बारीक अंतर भी पकड़ लेती है, एक समान चमकती उन गोल आखों में एक जोड़ी के पीछे भय की छायाओं को देख लेती है. लेकिन बार-बार पूछने पर बेटे ने एक बार भी अपने डर को कबूला नहीं. बहन के बाद अपना टर्न लेकर गर्व से आकर मां के बगल में बैठ गया है.

बस थोड़े से डर की बात उसने तीन दिन बाद स्वीकारी, वो भी अकेले में, इस आश्वासन के साथ कि पहली बार था, अब दोबारा नहीं होगा कभी. 

मैं उसे सिखायी जाने वाली तमाम ज़रूरी बातों की लिस्ट में एक और शामिल कर लेना चाहती हूं. उसे बाहों में लेकर बताना चाहती हूं कि डरने में कुछ गलत नहीं, स्वीकारने में और भी नहीं. जो चीज़ दोबारा नहीं होनी चाहिए वो है उसकी स्वीकारोक्ति की झिझक.

घर में लड़का होकर भी या लड़की होकर भी जैसी बातें कभी नहीं होतीं फिर भी जाने कैसे ये अंतर गाहे-बगाहे सामने आ जाता है. जेंडर डिस्कोर्स की तमाम व्यंजनाओं के बीच लड़के और लड़कियों के लिए निषिद्ध भावनाओं का वर्गीकरण भी पीढ़ियों की सहमति से गुज़र कर अपनी पुख्ता ठोस ज़मीन पर तन कर खड़ा है. इसे हिला पाना जाने कब संभव हो पाएगा.

बेटियां अपने डर की पोटलियां बेझिझक दिखा सकती हैं, चाहतों की नहीं. बेटे डर और हार की स्वीकारोक्ति नहीं देंगे. अपने आंसू, उपहास के भय से छुपा लेंगे. इसमें बस मिथ्या दंभ ही नहीं होता, उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं से लदी कोई मजबूरियां भी होती होंगी शायद.

कुछ हफ्ते पहले झिझक भरी मुस्कान के साथ बेटे ने बताया था कि कैसे क्लास की एक फ्रेंडली फिस्ट फाइट में वो एक लड़की से हार गया. मां के कुछ जवाब दे पाने के पहले उसकी बहन तमक गई थी, तो, लड़की से हारने में अलग क्या है?’

बेटी की वो बात उस दिन मां ने भी गांठ बांध ली. हार जीत विशुद्ध क्यों नहीं है? एब्सल्यूट, जेंडर बायस से परे?
भय और आंसू भी तो वैसे ही हो सकते हैं, एब्सल्यूट. और आंसू बस तोड़ते कहां, जोड़ते भी तो हैं, हिम्मत भी तो बंधाते हैं. 

बोर्ड में उम्मीद से बहुत कम नंबर आने पर मैं फूट-फूट कर रोई थी. मां मुझे लगातार चुप करा रही थी लेकिन मेरे आंसू देखकर उस दिन पापा भी रोए थे. 23 साल बाद भी वो आंसू मैं कभी नहीं भूल पाई. जब भी हौसला टूटा उनके आसूंओ ने भी उतनी ही हिम्मत दी है जितना हौसला बढ़ाने वाले बार-बार कहे उनके शब्दों ने. 

स्त्री और पुरुष के बीच सबसे व्यापक, प्रेम और गृहस्थी के संबंधों का गणित भी कुछ ऐसा ही.

घर बसाने के बाद जिन बात से सबसे ज़्यादा डरती हैं औरतें वो पुरुष की कमज़ोरी नहीं उसकी असंवेदनशीलता और उदासीनता होती है. भजन गाते समय, भावनात्मक फिल्में देखते समय, विदाई में, मिलने पर, पति की आखों से छलक आई बूंदे डराती नहीं, आश्वस्ति देती हैं. उन आसुंओ में छुपे प्रेम की, उसके संवेदनशील होने की.

औरतें सबसे ज़्यादा विचलित अपने पुरुष का भय और आंसू देखकर नहीं उसका अनिर्वचनीय क्रोध देखकर होती हैं.. अगर प्रेम और विश्वास की जड़े ठोस हों तो अपनी गोद में रखे व्याकुल सिर को सहलाते हुए भी स्त्रियां सहेज लेती हैं अपने प्रिय का पौरुष.

बृहद सामाजिक परिपेक्ष्य में एक और बात जेहन में आती है, डर की स्वीकारोक्ति ,गलतियों की स्वीकारोक्ति की दिशा में भी पहला कदम हो सकती है. हार और कमज़ोरियों को स्वीकारने के बाद हर प्रश्न, हर कुंठा, हर असफलता का समाधान बल प्रयोग के ज़रिए ढूंढ निकालने के बजाए शायद भावनाओं और शब्दों का सहारा लेने की शुरुआत कर पाए हमारा डॉमिनेंट जेंडर.



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