Sunday, August 19, 2018

आवाहनं ना जानामि




बचपन में पढ़ा था, जिनके भगवान जितने सूक्ष्म होते हैं वो उसमें उतना ही उलझकर मरते हैं. जिनके भगवान स्थूल रहते हैं वो सुगमता से अपनी मुक्ति का मार्ग निकालते जाते हैं. मेरी बुद्धि का शैथिल्य कहो या उस पढ़े गए का प्रतिफल, मेरे भगवान स्थूल ही बने रह गए. उतना ही पगडंडीनुमा रिश्ता भी रह गया हमारा, बिना किसी नियम-क़ायदे के लेकिन नंगे पैर भी चल सकने लायक.
दादाजी को सुबह का नाश्ता फ्रेश होने के तुंरत बाद चाहिए होता था और लंच होता नहाकर निकलने के बाद. जबतक खाने के लिए अंदर से पुकार होती आरामकुर्सी पर बैठ आंखें बंद कर कुछ बुदबुदा लिया करते. ये कैसी पूजा हुई भला, ना दिया, ना अगरबत्ती, ना घंटी, ना फूल. इसको भगवान के दरबार में हाजरी लगाना कहते हैं, उनको याद दिलाना होता है कि हमसे किसी का कोई बुरा ना हो जाए इसका ख्याल रखें.
मेरे आलसी मन को ये विधि जम गई, हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा. ना विधि की चिंता, ना विधान की, एक सरल सी डोर बन जाए एक सहज रिश्ते को बांधे रहने का सबब.
अक्सर कई-कई दिन मंदिर की ओर जाना नहीं हो पाता, मिलने पर उलाहना दे बैठती हूं, कितने सारे कामों में लगा छोड़ा है, इंसान दो मिनट आसन बिछा बैठ भी नहीं सकता तुम्हारे सामने. नियम पालन में बड़ी वाली ग़लती के बाद क्रोध और दंड जैसे शब्द तारे दिखाने लगते हैं तो पूछना पड़ता है, क्यों जी, इतने इंसानी हो तुम, मन के विपरीत हो तो तुरंत बदला लोगे? कुछ समय बाद समझ आ जाता है कि बात दिल को लग गई, उस ओर से फॉर्गेट एंड मूव ऑन का फैसला ले लिया गया है
यूं उम्र के साथ मन का झुकाव कृष्ण से शिव की ओर बढ़ा है, लेकिन छोटे से मंदिर में देव मूर्तियों का घनत्व देश की जनसंख्या जितना ही है. जो तीर्थ के लिए जाता है प्रसाद के साथ वहां के अराध्य की एक मूरत लाकर साधिकार मंदिर में स्थापित कर देता है. देसी देवताओं के बीच बैंकाक से लाए बुद्ध महाशय भी ठाठ से बैठे हैं. मैने कई बार पूछा, जब तुमको साथ रहने में कोई दिक्कत नहीं होती तो बाहर वालों को समझाते क्यों नहीं. इस सवाल पर मेरी तरह वो भी निरुत्तर रह जाते हैं.
बाल्कनी के गमलों में खिले फूल अक्सर कम पड़ जाते हैं, तोड़कर मंदिर के बीचों-बीच रख देती हूं, मिल बांटकर ग्रहण कर लो. या फिर जिन देवता की विशेष पूजा का दिन होता है एक फूल उनके सामने डाल बाकी साझा खाते में, वैसे ही जैसे बर्थडे वाले दिन मां से एक मिठाई ज़्यादा मिला करती थी. कभी आसन पर बैठने के बाद याद आता है, फूल तोड़ना तो भूल गए. उनको कह देती हूं, छोड़ो ना पेड़ में लगे हैं तो कौन सा तुमसे अलग हैं, समझो वहीं से अर्पित हो गए तुमको, वो उतना भी मान जाते हैं. कामवाली मुस्लिम है, पूजा के बर्तन चमकाकर रख जाती है, ना उन्होंने इसपर कोई एतराज़ जताया ना मैंने
कभी चोट खाया मन जाकर गुहार लगाता है, किसी ने धोखा दिया है मुझे. वो कहते हैं देखने की जगह बदलकर देखो, वो तुमको नहीं अपने आपको धोखा दे रहे हैं. मैं मान जाती हूं, मन हल्का हो जाता है. व्रत के मामले में हमारा बहीखाता एकदम पक्का है, मैं कहती हूं बीएमआई सुधारने के लिए करती हूं, वो कहते हैं कुछ कर लो, वो कभी ठीक नहीं होगा. ना वो मेरा मन बदल पाते हैं ना मैं अपना शरीर. तीर्थयात्रा पर जाने का मकसद धुमक्कड़ी ही रही, मंदिरों से निकलने की सबसे ज़्यादा हड़बड़ी भी मुझे ही रहती है. मैं कहती हूं इन बंद दीवारों की धक्कापेल से ज़्यादा तुम तो बाहर नज़र आते हो. वो खामोशी से स्वीकारते हैं इसे
बहुत बरस हुए, मेरे मन को मंदिरों की दानपेटी से दूर कर दिया है. ब्राह्मणों (नाम के ही सही) के लिए तो तीन समय खाना वैसे ही पकाना पड़ता है इसलिए अलग से कुछ कर सकने की ज़रूरत नहीं बची. लेकिन मन को अभी भी भीरू ही रख छोड़ा है इसलिए मन्नतों के धागे बांधने होते हैं जब-तब. उनकी पूर्णाहूति हमेशा किसी संस्था से जुड़ने, किसी बच्चे की पढ़ाई का भार अपने उपर लेने, किसी आश्रम के लिए किताबें भिजवाने में होती है. हर ऐसे काम के बाद मैं उलाहना दे आती हूं, इसी वजह से ही डर भरा था ना मेरे अंदर? जानबूझकर काम अटकाते हो मेरे और खर्चा बढ़वाते हो. वो शरारत से मुस्कुराते हैं.
जन्म मरण जैसे गूढ़ विषय हमारे संवाद में स्थान नहीं पाते कभी. जीवन बना रहा तो भगवान ने बचा लिया और जीवन चला गया तो भगवान ने बुला लिया का फलसफा मेरी समझ के परे ही रहा. मैं पूछती हूं तुम बचाने में अधिक उदार हो या बुलाने में?  वो चुप लगा जाते हैं.
हमारी डील पक्की है, मैं कहती हूं ज़्यादा समझकर क्या होगा तुम अपने सरलतम रूप में मिलो ना मुझे, मैं अपने कोशिका भर ज्ञान से तुमको पाकर तृप्त हूं. उनके अंदर की मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर खिंच आती है. तभी रातों को सुकून भरी नींद आती है.

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