नए साल की दहलीज़, इस क़िताब का हाथ थाम कर
लाँघी. एक तरफ पहले सात अध्याय और दूसरी ओर बाक़ी के दो. संयोग ऐसा कि साल के
आख़िरी इतवार इंदौर से मांडू देखने निकलना हुआ. मैं पिछली सीट पर बच्चों के बीच
क़िताब में ऐसी डूबी कि जहाज़ महल पहुँच बाकी लोग कब उतर लिए पता ही नहीं चला. किताब
का नाम देख जेठजी चिढ़ाते रहे, “अरे वही दिखाने तो लाए हैं तुम्हें, पहले उतर तो
लो.” बाज
बहादुर के महल से निकलते-निकलते झुटपुटा हो चला था. जेठजी ने फिर खिंचाई शुरू की, “कहीं किताबों की
दुकान दिखे तो तुम्हारे लिए नई क़िताब ढूँढ लाएं, मैंने मांडू देख लिया.”
मैं क्या बताती, देखा तो लिखने वाले ने भी नहीं
था. वैसे देखने की रस्म क्या बस गंतव्य तक पहुँच कर पूरी हो जाती है?
“पूरे महल में दरवाज़ा तो कहीं है नहीं, ताला कहाँ
लगाते हो?” मैंने खिंचाई शुरू की.
“बाहर के गेट में”, उन्होंने मशीनी जवाब दिया.
“अच्छा सुनो, क्या सचमुच यहाँ रात को राजा की रूह
अपनी रूपमती के साथ गाने गाती है? आवाज़ आती है आपको भी?” मैंने संजीदा होकर पूछा
उनके लिए मज़ाक का बटन अब ऑन हुआ, “आती है ना, हम भी
आकर उनके साथ गाते हैं यहाँ”
मैं उदास हो गई. मालवा का आख़िरी स्वतंत्र शासक, कमज़ोर
सेना का नायक और मौसिक़ी का शौक़ीन, बंजारन की आवाज़ और सौंदर्य पर निछावर, उसे रानी
बना लाया. दुनिया की हर ख़ूबसूरत प्रेम कहानी की तरह इसे भी ताक़त के गुरूर की
नज़र लगी. मुगलिया सेना के सामने राजा के घुटने टेकते ही रानी ने ज़हर खा लिया,
राजा की मौत उसके साल भर बाद हुई. इतनी कहानी गूगल ने बताई. इन महलों के आसपास कोई
गाइड नहीं. रूपमती के महल से नर्मदा की झलक भी नहीं पाई थी. इतवार का दिन
सैलानियों की भीड़ से भरा, ऊपरी मंज़िल पर जाने के लिए कतार लंबी थी, सामने आसमान
में रंग-बिरंगा पैरा सेलर दिखा और मिनट भर में भीड़ तितर-बितर हो उस उड़ते पंछी को
निहारने लगी. उत्साही जन उसके उद्गम स्त्रोत का पता कर बुकिंग करने भी निकल पड़े.
महल की ऊँचाई पर पहुँचकर अपना हर दुख छोटा लगने
लगता है. राजा बाज़ बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कहानी उनकी यादों की ही तरह
खंडहर में तब्दील होती जा रही है. क़िताब में जहाँ मेरी ऊँगलियाँ अटकी हैं, स्वदेश
दीपक के जले शरीर से कीड़ों के साथ मांस के लोथड़े निकाले जा रहे हैं. मैं अगले
पन्ने में लिखी पंक्तियों से ख़ुद को दिलासा दे रही हूँ, “Perhaps there
will come a time when we will be so enlightened, that we will view, with
indifference the brutal, cynical and heartless spectacle that life has to offer”
No comments:
Post a Comment