मेरे शरीर के नज़र आ
सकने वाले हर हिस्से पर तुम्हारे नाम की मुहर लगा दी गई थी, मांग में, माथे पर, कलाइयों में, हथेलियों पर, पैरों में। मेरे अस्तित्व के
हर कोण को तुमसे गुज़रने की अनिवार्यता समझाई जा रही थी, नाम, पता, पहचान। जबकि मन को बस एक वो डोर चाहिए थी जो इन सब
प्रतीकों के परे सीधे तुमसे जुड़ सके। पता है क्या, बहुत सारे प्रतीक दरअसल
अविश्वास से जन्मते हैं, फिर वो रिश्ता हो, समाज या कि देश। और ज़्यादातर बेईमानियां भी इन्हीं प्रतीकों की आड़ में होती हैं।
और हां, साथ में सात
जन्मों के बंधन का वास्ता भी तो था हमें कसकर बांधने के लिए। (यूं सात जन्मों की
बात मुझे अक्सर उलझा देती है क्योंकि इस बारे में हर कोई ऐसे बात करता है मानो ये
पहला ही जन्म हो, दूसरा, तीसरा या सातवां भी तो हो सकता है ना।) सोचो तो, रिश्ते
की सुंदरता क्या उसकी लंबाई से नापी जा सकती है? उफ्फ, संस्कार-परंपराएं, रीति-रिवाज़, लोक-लाज,
उम्मीदें-अपेक्षाओं की इतनी दुहाइयां कि सब के सब कलेजे में एक साथ जम कर भय का
रूप लेने लगे थे। इतना भय कि मन की सहज, सुंदर तरंगे एक-दूसरे तक पहुंच अनछुई ही
लौट आएं।
और इन सबके बाद मुझे
और तुम्हें एक साथ निर्माण में जुट जाना था, गृहस्थी की इमारत के। वो इमारत जिसकी एक-एक
ईंट पीढ़ियों की आज़मायी हुई थी, ठोक बजा कर रखी, दूसरों के अनुभवों के जोड़ से
जुड़ी। एकदम फेवीकोल का जोड़ जहां गलतियों के आ-जा सकने के लिए दरवाज़ा ना हो, कोई
गवाक्ष तक नहीं। गलतियां क्या, वहां से तो छोटी-छोटी खुशियां, छोटे-छोटे सुख-दुख
भी नहीं आ जा सकते। इमारत कितनी भी भव्य हो, रहती तो निर्जीव ही है ना। उसकी नींव
चाहे कितनी भी गहरी हो, धरती के सीने से अपने लिए खुद पोषण नहीं ले सकती। वो सब तो
एक पेड़ कर पाता है। जीवित, स्पंदन करता पेड़, जिसके ऊपर कोई छत नहीं होती, मौसम
की मार से सारे पत्ते भी झड़ जाते हैं उसके, फिर उग आने के लिए।
सोचो कैसा विरोधाभास
है, फल देने के पहले पेड़ों को सालों पानी दिया जाता है, दोस्ती का रिश्ता
धीरे-धीरे पुख्ता होता है, चलाने की कोशिश कराने से पहले बच्चे के पैरों के भी
मज़बूत होने का इंतज़ार होता है। केवल दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिससे पहले दिन ही
रिज़ल्ट की उम्मीद की जाती है। शादी ना हुई वन टाइम इन्वेस्टमेंट हो गया, मंत्र पढ़े,
फेरे लिए और शुरू हो गई मिल-जुलकर कैदखाना तैयार करने की कवायद। या जैसे ऑनलाइन
मंगाया गया कोई रेडीमेड फर्नीचर हो, सारे टुकड़े साथ जोड़े, ड्रिल किया, पेंच कसे
और इस्तेमाल को तैयार। यूं ही नहीं उम्मीदों के बोझ तले ज़्यादातर रिश्तों को
कोंपलें मुरझा जाया करती हैं।
शुक्र है इमारत
बनाने का हुनर ना तुम कभी सीख पाए ना मैं। हमें जोड़े रखने के लिए अनुभवों के फेवीकोल
का स्टॉक खाली करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। देखो तो, कोई बंधन नहीं है सिवाए उनके
जो हमने चुने अपने लिए। आलते, बिछुए जाने कौन से अतीत की बात हो गए, चूड़ी, बिंदी
की ज़रूरत केवल ड्रेस कोड के हिसाब से होती है, शादी के गहने तरतीब से लॉकर में रख
दिए गए, त्यौहारों में निकालने के लिए। सिंदूर भी याद नहीं रहता अक्सर। साथ रहने
के नियम हमारे, उनमें की गलतियां हमारी, उनसे सीखे सबक भी हमारे। पतझड़ आकर भी गए तो
कोमल नए पत्तों के उग आने की उम्मीद में। बाप रे, कितनी बातें अब याद भी तो नहीं
रहतीं, बस तुम्हारी छाती के सफेद हो रहे बालों को गिनती हूं तो तसल्ली होती है, साथ चलते-चलते एक अरसा हो
गया।
वैसे सुनो, क्या तुम्हें उस पंडित का नाम और
शक्ल याद है जिसने शादी के मंत्र पढ़े थे?
मुझे भी नहीं।