Saturday, July 9, 2016

तुम समझ पाओगे?


जब से तुम्हारे घर से फोन आया है मेरे घर में हलचल मची है। मेरे ऑफिस से लौटते ही कई चहकती आवाज़ों ने मुझे बता दिया कि कल तुम अपने परिवार के साथ मुझे देखने आ रहे हो। मन तभी से  खट्टा हो गया है। तुमसे मिले बगैर तुम्हें लेकर एक किस्म के प्रतिक्षेप से भर गया है मन। ये जो हम दोनों के मिलने के मौके को देखने की रस्म का नाम दे दिया गया है ना, ऐसा लगता है जैसे बराबरी के इस सो कॉल्ड रिश्ते की शुरूआत में ही एक सेंध लग गई है। जैसे ये पहला अधिकार है जो मुझसे छीनकर तुम्हें दे दिया गया है। पहली स्वीकृति का अधिकार। और शुरुआत तो हमेशा एक से ही होती है।  

ना, ये मत समझना कि मेरे ऊपर कोई दबाव है। मैट्रीमोनियल वेबसाइट से तुम्हारी प्रोफाइल सेलेक्ट कर मैंने ही घरवालों को बताया था। मेरी जो प्रोफाइल है ना वहां, उसे भी मैंने ही बनाया है। मेल, मैसेज वगैरा के जवाब भी मैं ही देती हूं, लेकिन अपने पापा के नाम से। वैसे मेरे पापा इंटरनेट वगैरा की बारहखड़ी ठीक से समझ नहीं पाते, फिर भी, मेरे नाम से प्रोफाइल बनाने का ख्याल रास नहीं आया मेरे घरवालों को। अब लड़के वालों को खुद से अपनी शादी की बात करती लड़की पसंद ना आई तो?
दरअसल लड़कियों के अधिकार उन्हें कुछ इस तरह से वर्गीकृत करके दिए जाते हैं कि उनके मिलने और मांगने की बीच एक किस्म की सतत खींचतान मची रहती है। अब देखो ना, बात मेरी स्वीकृति के बिना भी आगे नहीं बढ़ेगी, लेकिन उसके लिए उस तरह की टकटकी नहीं लगाई जाएगी जैसे तुम्हारी हां की होगी। फर्क थोड़ा बारीक सही लेकिन है तो। मेरी समझ में बराबरी का रिश्ता इन बेहद बारीक तुंतुओं को जोड़कर बनता है। हर कदम पर साथ के बजाए सहमति की ज़रूरत लिज़लिज़ी लगती है मुझे। मेरी ये झल्लाहट मेरी मां भी नहीं समझ पाती। आज़ादी के जिस आकाश तक उसकी नज़रें ही पहुंच पाती थीं मेरे लिए वो हकीकत की ठोस ज़मीन है। इसलिए मां देख नहीं पाती कि इससे ज़्यादा की चाहना भला क्यों होगी उसकी बेटी को।
तुम्हें पता है, मेरी बेस्ट फ्रेंड मीनू को भी एक लड़का देखने आया था। दोनों ने अकेले में बात भी की। लेकिन लड़के को वो शादी के लिहाज़ से पसंद नहीं आई तो उसने अपने पिताजी से कहकर उसके पिताजी को फोन करवाकर मना कर दिया। मीनू मना करने के इस तरीके से भड़क गई, उसने फोन कर लड़के को तलब कर दिया, सीधे मुझे क्यों नहीं जवाब दिया?’ लड़के का तर्क था कि सीधे रिजेक्ट किया जाना शायद उसे दुख पहुंचाता। हम दोनों बड़ी देर तक हंसते रहे थे इस जवाब पर। सच बतलाना, तुम लड़कों की आत्ममुग्धता का चरम आखिर है कहां? तुम्हें सचमुच लगता है कि चौदह प्रोफेशनल कॉलेजों और चालीस कंपनियों के एक्सेप्टेंस या रिजेक्शन से गुज़र चुकी लड़कियां शुरूआत को ही अंत मान कर तुष्ट हो जाती हैं? या अपने लिए ऐसी किसी स्थिति के आ सकने से पहले ही फैसला सुनाने की प्रतिक्रिया होती है ये तुम्हारी?
वैसे एक बात तो है, इस देश के मध्यवर्गीय परिवारों में कम से कम तिहाई लड़कियों को अपने प्रोफेशनल क्वालीफिकेशन के लिए तुम्हारे पहले की पीढ़ी के लड़कों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। अगर तुम्हें ये पढ़ी-लिखी प्रोफेशनली क्वालीफाइड बीवियों का शौक नहीं चढ़ता ना तो मुझसे बारह-पन्द्रह साल बड़ी जाने कितनी लड़कियां सिलाई-कढ़ाई सेंटर से सीधी मंडप में जा बैठतीं। लेकिन जैसे ही शादी के बाज़ार में ये बात फैली कि डिमांड अब बड़ी-अचार और मेजपोश-स्वेटर बनाने वालों की नहीं रही क्योंकि ये सब तो अब धड़ल्ले से रेडीमेड मिलने लगे हैं, सप्लायर्स ने तुरंत अपना प्रोडक्शन लाइन और पैकेजिंग डिज़ायन बदल लिया। मेरे खुद के परिवार में कितनी ही लड़कियों को एम्ब्रायडरी सेंटर के हटाकर कम्प्यूटर सेंटर में डाला गया ताकि शादी के बाज़ार में उनकी एक्सेप्टेंस परसेंटेज बढ़ जाए।  क्या है ना, शादी के बाज़ार में सप्लाई एलास्टीसिटी बहुत ज़्यादा है। और तुम ये तो बिल्कुल मत समझना कि मैं अपनी मार्केटिंग मैनेजमेंट का रौब झाड़ रही हूं तुमपर। वैसे भी ये सब शुरू हुए एक पीढ़ी गुज़र चुकी है। दरअसल, समाज किसी कानून से नहीं चलता, समाज चलता है अपने चलन से, जिसे हर रोज़ थोड़ा और बदला जाना ज़रूरी होता है, कभी थोड़ा इधर, कभी उधर।

मैं अपने हिस्से का आसमान अपने जीवनसाथी का हाथ पकड़कर नापना चाहती हूं, सहारा लेकर नहीं। हाथ पकड़ने और सहारा लेने के बीच का फर्क भी तुम्हारी नज़र में बहुत बारीक होगा, लेकिन मेरे लिए ये बहुत बड़ा फासला तय करने जैसा है। अब जब तुमने मुझसे मिलने के बजाए मुझे देखने आने की फैसला किया है तय नहीं कर पा रही हूं कि मेरे इस अंतरद्वंद को तुम समझ पाओगे या नहीं। लेकिन मेरे लिए ये समझा पाना अस्तित्व का बहुत बड़ा रिडेम्पशन होगा। 

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