Saturday, July 23, 2016

आधी आबादी का निर्वाण


अपने ईश को पाने के लिए, अपने दीन की राह में, अपने सत्य की तलाश के लिए, पुरूष छोड़ते आए हैं अपना घर, अपना परिवार, अपने लोग। हर वो रिश्ता जो सत्य संधान और उनके बीच बाधा बनकर आ सकता है। बिना पीछे मुड़े, मोह के सारे बंधन एक झटके में तोड़ चले गए। फिर उन्होंने पा भी लिया अपना सत्य, अपना प्रभुत्व। नए धर्म गढ़े, नए पंथ जोड़े। उन्होनें कहे हज़ारों शब्द, हर शब्द पत्थर की लकीर, जिसे अपना अंतिम सत्य मानने वाले लाखों अनुयायी भी जुट गए।

लेकिन प्रथम पुरूष की छाया से जन्मी, आदम की पसली से गढ़ी गई, किसी औरत ने कभी कोई धर्म नहीं गढ़ा। कोई स्त्री नहीं सिरज पाई किसी पंथ को, नहीं दिखा पाई कोई राह मुक्ति की आस लगाए अनुयायियों को। औरतों ने नहीं रचीं ऋचाएं, आयतें, वर्सेज। इन पन्नों में उनके लिए लिखे कर्मों की सूची भी तो भौतिक कर्तव्यों से इतर कुछ ज़्यादा नहीं। स्वर्गारोहण के मार्ग में, सुमेरू की तलहटी में सबसे पहले पांचाली के ही तो पैर फिसले थे। परिवार और प्रजा के प्रति आसक्त द्रौपदी की चाहतों की सीमा से कितना परे था ना सशरीर स्वर्ग में प्रवेश का सौभाग्य। 

शाम की चाय उस दिन लंबी खिंच गई थी। बाबूजी (श्वसुर) तन्मयता से लक्ष्मीनाथ गुसाई की कहानी सुना रहे थे। 18 शताब्दी के प्रसिद्ध कवि और योगी, कई दूसरे सत्यान्वेषी योगियों की तरह उन्होंने परिवार के कहने पर शादी की और पत्नी की ओर देखे बिना घर छोड़ दिया। पांडित्य प्राप्त करने के बाद जब पत्नी, संग की कामना के लिए उनके पास पहुंची तो उन्होने इसका प्रयोजन पूछा। पुत्र प्राप्ति की चाहना की तो पति की खड़ाऊं मिली जिसे धोकर पीने से लाल की प्राप्ति होगी। हो गई प्राप्ति। और साथ में पति  धर्म का निर्वाह भी। कहानी सुनकर मैं और मां एक दूसरे को एक सी नज़र से देख रहे थे, पुरूषों के लिए निर्लिप्त रह पाना इतना सहज कैसे हो पाता है? 

बचपन में अपने पिता की नानी की कहानियां सुना करती थी। पति की बेरुखी और मनमानियों से आहत एक बार अयोध्या गईं तो सीता की प्रतिमा में मन ऐसा रमा कि लौट कर कभी घर नहीं आईँ। वहीं के एक आश्रम में जीवन के बाकी साल बिता दिए। लेकिन घर पूरी तरह से तो भी नहीं छूट पाया उनसे। पति का परित्याग करने वाली औरतें भी अपने बच्चों से विमुख नहीं हो पातीं। मिलने आती रहीं लौट-लौटकर। पोतियां बड़ी हुईं तो उन्हें भी अपने साथ ले गईं। मूल-गोत्र के बंधनों को तोड़ उनका विवाह अयोध्या के परिवारों में ही कराया। मां-पापा की शादी के बाद भी आईं थीं, मां को देखने। उन्होंने अपने लिए शांति का मार्ग ढूंढा लेकिन क्या मुक्ति का भी?

कुछ दे सकने के लिए काफी कुछ छोड़ना भी तो होता है। और कहां छूट पाती हैं औरतों से कभी उनकी एक सी दिनचर्या। कोरी भावुकता से भरी औरतों को जाने क्यों परिवार की अनगिनत जवाबदेहियां कभी ज़ंजीर नहीं लगते। फिर कैसे मिलता होगा स्त्रियों को मोक्ष, मुक्ति, त्राण? कैसे पार कर पाती हैं वो वैतरणी? कयामत के रोज़ किस उम्मीद की चमक ला पाएंगी, फैसले का इंतज़ार करती उनकी आंखें?

घर और बाहर के बीच संतुलन बिठाने की सतत् कोशिश के बीच तो मुक्ति और निर्वाण जैसे शब्दों को याद रखना भी जटिल। चौके की उमस में, बच्चों के पोतड़ों में, जूठे बर्तनों के ढेर में भी क्या भगवान आ सकते हैं कभी?

ज़रूर आ सकते हैं। बल्कि आना पड़ता है उनको, आते रहे हैं वो।

स्त्रियां चूंकि मुक्ति के लिए पलायन नहीं करतीं, तभी शायद वो देख पाती हैं छोटी-छोटी चीज़ों में अपना ईश। परीक्षा के दुर्दम्य क्षणों में भी मन्नतों के धागे बन जाते हैं उनकी जिजीविषा को जीवित रखने की सबसे मज़बूत कड़ी। एक छोटी सी ताबीज़ में ढूंढ पाती हैं वो विश्वास का अथाह सागर। आना होता है ईश्वर को उनतक उसी रूप में जिससे उनकी पहचान है।


हो ना हो, वैतरणी के उस पार का एक रास्ता रसोई के धुंए, बच्चों की हंसी और परिवार की ज़रूरतों से होकर भी जाता है। 

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