‘बाय,
सी यू, मिस यू’, के नारों के साथ जाने वालों की आखिरी गाड़ी भी
विदा हो गई तो कई मिनट तक दोनों बरामदे के दो कोनों में एक-दूसरे से आखें चुराते
बैठे रहे।
दो हफ्तों से
आशियाने को गुलज़ार किए सभी पाखी अपने-अपने घोंसलों को उड़ चले और पीछे छोड़ गए ये
असहज सन्नाटा। बच्चे थे तो उनके बच्चे भी थे, बातें थीं, कहकहे थे, शिकायतें थीं, उलाहने थे, माफी थी, प्यार था, चिंताएं थीं, आश्वासन थे, महत्वाकांक्षाएं थीं, भरोसा था, सराहने थे, साथ था। चले गए तो इन सबके
साथ मां-बाप के बीच जुड़ीं सारी की सारी डोरें भी साथ ले गए। चालीस सालों का जो
आशियाना जोड़ा था उसकी नींव भी बच्चे और छत भी बच्चे।
जब रहते तो दीवारें, दरवाज़े, खिड़कियां, सब एक-दूसरे से जुड़कर अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित हो जातीं। चले जाते तो जैसे काठ के घरौंदों की तरह सब खोल-खालकर साथ ले जाते। उनके जाते ही अपनी-अपनी विसंगतियों में क़ैद मां-बाप अपने-अपने खोल में घुस जाने को बेताब हो उठे।
जब रहते तो दीवारें, दरवाज़े, खिड़कियां, सब एक-दूसरे से जुड़कर अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित हो जातीं। चले जाते तो जैसे काठ के घरौंदों की तरह सब खोल-खालकर साथ ले जाते। उनके जाते ही अपनी-अपनी विसंगतियों में क़ैद मां-बाप अपने-अपने खोल में घुस जाने को बेताब हो उठे।
‘अब ये नई-नई बीमारियों और बहु की शिकायतों वाली
ऊल-जुलूल कहानियां शुरू करेगी’, कुर्ते के छोर से चश्मा साफ करते उन्होंने सोचा।
‘अब ये फीकी सब्ज़ी में मिर्च मांगेंगे और
मसालेदार खाना मिले तो सीने में जलन की शिकायत करेंगे’, साड़ी के पल्लू से भीगी
आंखों को पोंछते हुए इन्होने सोचा।
“चाय बनाती हूं”
“टहल कर आता हूं”,
एक साथ ही दोनों के
मुंह से निकला। अनायास नज़रें मिलीं और जाने कैसे चुप्पियों का एक करार हो गया। ये
वहीं बैठ गए और वो अंदर चलीं गईं।
शादी एक सौदे के तहत
हुई थी। जाने कौन सी खरीद थी जिसके लिए पिता को पैसे कम पड़ रहे थे, कोई और रास्ता काम नहीं आया
तो हितैषी ने बेटे की शादी करने की सलाह दी। दहेज की रकम से सौदा हो गया और एक दिन
इन्होंने खुद को, लाल चूनर में लिपटी, मेले में खो गए बच्चे की तरह सहमी सी, बीस साल की नवोढ़ा के
साथ एक कमरे में बंद पाया, जिसे कॉलेज के दूसरे साल का आखिरी इम्तिहान बीच में ही छोड़
मंडप पर बैठना पड़ा था। वो पूरी रात नवेली के मुंह से उसका और अपना नाम सुनने की
कोशिश में बीती।
उसके बाद की रातें भले
ही गर्माहट भरी थीं, बुज़ुर्गों से भरे घर में खर्राटे और खखार की आवाज़ों के
बीच एक-दूसरे की हसरतें सुनने की रातें। एक दूसरे के सपने बुनने और सहेजने की
रातें। फिर जाने कैसे वक्त की लहरें सब बहा कर ले गईं, जब किनारे लगे तो पाया जो
कुछ था दोनों का साझा था फिर भी जाने कैसे दोनों अकेले-अकेले थे।
एक बूंद हौले से
कलाई से टकराई, बाहर झांका, बादलों का एक मरियल सा टुकड़ा जाने क्यों समय से पहले बरसने पर आमादा था। चाय
में देर हुई तो खामखां घूमना स्थगित करना होगा। रसोई से खुद ही चाय लाने चले गए।
चूल्हे पर रखी चाय
उबल-उबल कर काली हुई जा रही थी और ये सर झुकाकर अखबार के एक टुकड़े में खोई थीं। जाने
क्यों आज ताने देने का मन नहीं किया। चुपचाप दो कपों में चाय निकाली और कंधे के
पीछे से झांका। उस मुड़े-तुड़े अखबार से पहाड़ों की एक सुंदर तस्वीर झांक रही थी।
“जब मेरे पास पैसे होंगे तो हम खजुराहो चलेंगे,
कोणार्क और अजंता भी। मुझे पुराने शहर बहुत पसंद हैं, उनकी उम्रदराज़ दीवारों से
हज़ारों सालों का इतिहास बस सुनते रहना चाहता हूं”, अब यकीन कर पाना मुश्किल है लेकिन चालीस साल
पहले उन गर्माहट वाली रातों में एक रात दोनों के बीच ये बातें भी हुई थीं।
“लेकिन मुझे तो पहाड़ पसंद हैं, किसी घाटी में
बैठकर जी चाहता है दिन भर पहाड़ों को अपने ब्रश से उकेरती जाऊं,“ शायद पहली बार नवेली ने
खुलकर कुछ कहा था।
“अच्छा तो सामान के बक्सों में जो पेंटिंग्स आई
हैं वो सच में तुम्हारी बनाई हैं, किसी को विश्वास नहीं हुआ, ये चीजें यूं भी
मायके से लड़की के नाम से आती हैं लेकिन बनाती उसके चाची, बुआ वगैरा हैं ना।“
“हां, पता है, मांजी तो ये भी कह रही थीं कि इसकी
चित्रकारी का क्या अचार डालेंगे, मेजपोश, चादरें वगैरा आतीं तो घर के काम भी आतीं”, उसकी आंखों में एकाएक
उदासी तिर आई थी।
“अच्छा सुनो हम ज़्यादा पैसे बचाएंगे, तुम्हें
यूरोप लेकर चलूंगा, ऑस्ट्रिया में साल्ज़बर्ग जाएंगे हम। मोज़ार्ट का नाम सुना है
कभी तुमने? दुनिया का महानतम संगीतकार, उसका शहर है वो, पहाड़ों के बीच बसा। वहां तुम
अपनी पेटिंग्स बनाना और मैं शहर की दीवारों से मोज़ार्ट की कहानियां सुनूंगा।
तुम्हें पता है मुझे संगीत सीखने का बहुत शौक था लेकिन बाबूजी को गवैये सख्त नापसंद
हैं“ नवोढ़ा की उदासी एक खूबसूरत वादे से पोंछ दी गई।
अधूरा वादा, चालीस
साल के फासले पर खड़े आज ने दोहराया।
“इतनी दूर कैसे जाएंगे”, चालीस साल पहले भी उन
उदास आखों में आश्चर्य तैरा था, “ऐसा करते हैं एक साल पास के किसी पुराने शहर हो आएंगे और
दूसरे साल कोई पहाड़।“
बाद के सालों में वो
पेटिंग्स बक्से के सबसे निचले हिस्से में दबा दी गईं और घर की दीवारें जोड़ने में
पुराने शहरों की पुकार सुनाई देनी भी बंद हो गईं। पहले ससुराल, मायके और
रिश्तेदारियों में जाते थे और अब एक साल बड़ी बेटी, एक साल छोटी बेटी और हर साल
बेटे के घर जाया करते हैं। बाकी का वक्त उनके आने के इंतज़ार में निकाल देते हैं।
आलमारी खोली, हसरतों
की एक पुरानी पोटली ज़िम्मेदारियों के जमघट के नीचे दुबकी पड़ी थी। इन्होंने डरते
हाथों से उसे टटोला, पोटली पुरानी ज़रूर, हसरतें सहमी ज़रूर, लेकिन अपनी जगह मौजूद
थीं। बस वक्त दगा दे गया था। ना शायद वक्त दस्तक देते हुए थक गया था।
रिश्तों की बागवानी
भी कितनी कठोर है ना, एक को खिलाने में दूसरे को डार से गिरकर खाद बन जाना होता
है।
सैर से लौटे तो थैले
में हफ्ते की सब्ज़ियों की जगह रंग और ब्रश भरे थे।
‘सुनो, मेरी एक तस्वीर बनाओगी’
अविश्वास भरी नज़र
उनकी ओर उठीं।
‘अच्छा अगर पहाड़ पर खड़ा हो जाऊं तो बनेगी क्या
तस्वीर’ इस बार आवाज़ में शरारत भरी थी।
‘तुम्हें याद है अबतक’, झल्लाहट भरी आवाज़ पसीजने
लगी थी।
“नहीं, बस आज याद आया। मन के अंदर के पुराने शहर
ने अचानक दस्तक दी, ये इमारत भी तो अब पुरानी हो गई है, इसके ढहने से पहले आओ हम
अपनी कहानी इसके अंदर छुपा दें। सुनो, हमसे एक झूठ बोला गया, हमने बस यही सुना था कि गृहस्थी की नींव दो लोगों का प्यार
होती है, लेकिन ये किसी ने नहीं बताया कि नींव के साथ प्यार भी कहीं गहरे दफन हो
जाता है। इसके पहले कि उम्र की रही सही मोहलत भी खत्म हो जाए चलो हम अपनी इस
गृहस्थी की नींव में दबे अपने अरमानों को खुल कर जी लें।“
धुले आकाश में वैशाख
का चांद निर्निमेष चमक रहा था। नई पारी की प्रत्याशा में दो जोड़ी आंखें नम थीं।
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