Friday, April 22, 2016

प्रेम का बिरवा


पार्क सरकारी था, महानगर के सुदूर कोने में, बड़ी-बड़ी रिहायशी इमारतों के बीच हाल ही में बनाया गया। उन ऊंची अट्टालिकाओं की दूसरी ओर, ऊबर-खाबड़ गलियों और बजबजाती नालियों वाला एक गांव भी था, जहां के हिलते-डुलते घरों से निकलकर हर सुबह सैकड़ों औरत-मर्द इन अट्टालिकाओं में घुसते थे, किसी की गाड़ी चलाने, किसी की जूठन साफ करने, किसी के कपड़े इस्त्री करने, किसी के चूल्हे की आंच सवांरने, किसी के बच्चे संभालने के लिए। इन अट्टालिकाओं से भी हर सुबह सैकड़ों औरत-मर्द हड़बड़ाकर बाहर निकलते थे, महानगर के अलग-अलग कोने में बने सरकारी और प्राइवेट दफ्तरों में सूरज के डूबने तक गुम हो जाने के लिए।

अट्टालिका में दो किस्म के लोग रहते थे, मकान-मालिक और किराएदार। जो मकान-मालिक थे वो किसी सुबह बड़े गुरूर से अपने ढाई-तीन-चार कमरों के घर को देखते, फिर किसी सुबह रिसते नलों और प्लस्तर छोड़ती गीली दीवारों के देख, बिल्डर को हज़ार-हज़ार गालियां देते जिसने उनकी खून-पसीने की कमाई के बदले ये घटिया मकान बनाकर उन्हें दे दिया। जो किराएदार थे उनमें से ज़्यादातर अपने मकान-मालिक को शक्ल से नहीं अकाउंट नंबर से जानते थे जिसमें हर महीने उन्हें किराए की मोटी रकम एकमुश्त जमा करनी होती थी। मकान-मालिक एक बेहतर मकान  और किराएदार अपने मकान की उम्मीद में और मेहनत करने का प्रण लेकर काम पर निकल जाया करते थे।
गांव में भी दो ही किस्म के लोग रहते थे, मकान-मालिक और किराएदार। मकान मालिक ज़्यादातर इसी गांव में पैदा हुए नाकारा अधेड़ थे जिन्होने रोज़गार का कोई और रास्ता मिलता ना देखकर अपने दो कमरों के पक्के मकानों के ऊपर कई-कई अवैध मंज़िलें जोड़ लीं थीं और दूर-दराज़ के कस्बों से नौकरी की तलाश में आए नौजवानों की आधी तनख्वाह के बदले उन्हें एक कमरा और साझा टॉयलेट किराए पर देते थे। केवल यहां के किराएदार अपने मकान-मालिकों को बस नाम से ही नहीं गालियों के चुनाव और डकार की आवाज़ तक से पहचानते थे। पौ फटते ही इनकी झिकझिक संडास के बाहर की कतार और रसोई में पानी के बेज़रूरत इस्तेमाल से शुरू होकर किसी ना किसी की सात पुश्तों के शाब्दिक तर्पण पर खत्म होती थी।
हां तो कहानी पार्क से शुरू हुई थी। शहर की प्लानिंग के दौरान ही इन रिहायशी इमारतों के बीच पार्क बनना तय हुआ था, लेकिन कमीशन लेकर बिल्डरों को प्लाट देते-देते कॉर्पोरेशन वालों के जेहन से पार्क का ख्याल ही निकल गया। बीच के सालों में ज़मीन का इस्तेमाल गांव के मकान-मालिक उपले रखने और अपने जानवर बांधने के लिए करते रहे। ज़मीन खाली कराकर पार्क चुनाव वाले साल में बनाया गया। पार्क में जॉगिंग ट्रैक बना, झूले लगे और चौहद्दी पर हरे-भरे पेड़ लगाए गए। गीले कपड़ों से भरी अपनी बाल्कनियों में केवल तौलिया सुखाने निकलते इमारतवासियों को सांस लेने की खुली जगह मिल गई। जॉगिंग ट्रैक पर आंटियों के साथ बच्चों की साइकिलें भी दौड़ने लगीं। छोटे बच्चे आयाओं के साथ झूलों पर लटकने लगे। बैठने के लिए बेंच कम पड़ने लगी तो बुज़ुर्गवार इमारतों से फोल्डिंग चेयर भी ले आए।
चुनाव खत्म हुए और प्रशासन पार्क को लेकर उदासीन हो गया। पार्क लेकिन फिर भी सरकारी ही रहा। फिर एक दिन गांव वालों की नज़र उस हरी-भरी ज़मीन के टुकड़े पर पड़ी। उपले हटाने के बदले उन्हें भी गंधाती नालियों से परे साफ हवा में सांस लेने की जगह मिल गई। इमारत वालों ने देखा, थोड़ा प्रतिरोध किया, लेकिन सरकारी पार्क पर गांव वालों के अधिकार को नकार नहीं सके। फिर क्या था, शाम ढलते ही माथे का दुपट्टा कान से पीछे दबा, गांव से झुंड की झुंड औरतें पार्क में अड्डा जमा देतीं। फिर गोद के बच्चे और माथे के दुपट्टे दोनों को ज़मीन पर पटक अपनी सासों और दूसरों के पतियों की शिकायत में लग जातीं। कुछ पढ़ी-लिखी औरतें सुबह भी साड़ी के नीचे पंप शू पहन सैर के लिए निकलने लगीं। इस तरह उस पार्क में सही मायने में लोकतंत्र स्थापित हो गया जहां गांव और महानगर के लोग एक-दूसरे को नकारते हुए देखते फिर अपना घूमना-फिरना और बाकी के काम जारी रखते। हर शाम वहां मेला सा लगने लगा।
लोग बढ़े, घटनाएं घटीं और हर घटना की कई-कई कहानियां बनीं। यूं घटनाएं कई-कई किस्म की होतीं, लेकिन सबसे ज़्यादा कहानियां बनतीं प्यार के ऊपर। इमारत वाली एक आया को गांव का वो बांका जवान इस कदर भाया कि एक शाम मालिकों के बच्चे को झूले के ऊपर ही छोड़ वो वहीं से उसके साथ हो ली। इमारत का एक ड्राइवर अपनी प्रेमिका के साथ पेड़ के नीचे पकड़ा गया, पांचवे माले पर में काम कर रही अपनी पत्नी के हाथों, फिर शाम तक गाली-गलौज, मार-पीट चलती रही। वैसे पकड़े तो चालीसे के पार वाले वो साहब जी भी गए थे जो ट्रैक पैंट और टैंक टॉप में जॉगिंग कर रही बालाओं के साथ रोज़ ही कदमताल करने लगे थे लेकिन उस मामले का निपटारा कैसे हुआ तमाशबीनों को किसी तरह ये पता नहीं चल पाया।
फिर एक सुबह पार्क के एक कोने में पुराने तिरपाल और पन्नियों से बना एक तंबू उकर आया। अंदर एक बिस्तरा और लोटा भी दिखा। उसके सामने चौकीदारों वाली पुरानी सी वर्दी पहने, कंधे तक के बेतरतीब बालों वाला, चालीसेक साल का एक इंसान टूटे मोढ़े पर बैठने लगा। उसकी आंखें हमेशा लाल रहतीं और वो आने-जाने वाले लोगों को एकटक घूरता रहता। इमारत और गांव दोनों के वासियों ने प्रश्न-वाचक कंधे उचकाए, आंखें तरेरीं, उसे वहां से हटा देना चाहा। एक-एककर लोग उससे बातें करने जाते, वो अपने हाथ में पकड़ा टेढ़ा सा डंडा जल्दी-जल्दी घुमाकर जाने क्या कहता, लोग इंकार में सिर हिलाते वापस आ जाते। जाने उसने लोगों को यही बताया या लोगों ने यूं ही मान लिया कि, वो इस पार्क का चौकीदार नियुक्त हुआ है और तेज़ गर्मी से बचने के लिए उसने ये छोटा सा तंबू खड़ा कर लिया है। जिन लोगों ने उसकी दलील मान लेने से इंकार करना चाहा वो सरकारी दफ्तर जाकर इसकी शिकायत करने की योजना बनाने लगे। कई टोलियां बनी, अट्टालिका वालों की भी और गांव वालों की भी, लेकिन सरकारी दफ्तर तक का सफर तय करने का समय किसी के पास नहीं था।
उसके बाद के हफ्तों में हालांकि चौकीदारी वाला काम करते उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन नाम उसका चौकीदार पड़ गया। वो चौकीदार ना अट्टालिकाओं का था, ना गांव का। ना मकान-मालिक था ना किराएदार। फिर भी सबसे ज़्यादा कहानियां उसके नाम की बनने लगी, सबसे ज़्यादा नाम उसी का लिया जाने लगा।  
डिस्गस्टिंग, ही इज़ सच अ मिनेस, येट नो वन टू डू एनीथिंग अबाउट इट,” इमारत वाले कुढ़ते।
लकड़सुंघवा है, अंधेरे में बच्चों को पकड़कर ले जाता है, तराई पार बेचने के लिए, गांव वाले सुगबुगाते।
कुछ ही समय में अंधेरा घिरते ही लोगों की भीड़ एकदम से छंटने लगती। इधर तंबू के अंदर धीरे-धीरे एक गृहस्थी आकार लेने लगी। एक लोटा, दो थाली, एक कड़ाही, बाहर झाड़ी पर टंगी छोटी तार पर सूखते कपड़े..फिर, आखिर में, एड़ी के काफी ऊपर साड़ी लपेटे, सूखी टहनी सी बे-रौनक वो भी नज़र आई, जिसके आने से गृहस्थी पूरी हो जाती है। जितना डरावना वो दिखता था उससे ज़्यादा मनहूसियत इसके चेहरे पर छाई रहती थी।  तंबू से सटे बेंच पर दोनों पैर ऊपर किए बैठी रहती और मानो बाकी पूरी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए बीड़ी धूकती रहती। वैसे जिस तरह दोनों अगल-बगल बैठे रहते उनके चहरों को देख ये कहना मुश्किल था कि ये एक-दूसरे को जानते भी हैं। फिर भी लोग और असहज होते गए। किसी को पता नहीं था कि ये पहले से ब्याहता है इसकी या अचानक कहीं से ले आया है। सुगबुगाहट भी और बढ़ गई, बच्चों को उठा ले जाने के लिए एक ही कम था जो एक और पहुंच गई। हालांकि ऐसा कुछ भी कभी नहीं हुआ, फिर भी दोनों सैकड़ों लोगों के गुस्से और नफरत के निशाने पर थे।
फिर उस शाम पार्क में थोड़ी देर तक रूकना पड़ गया। उनकी गृहस्थी का सरंजाम जुटा हुआ था। छोटे से स्टोव को तंबू के बाहर निकाल लिया गया था। एक हाथ में जली बीड़ी दबाए वो दूसरे हाथ से रोटियां सेंक रही थी। रोटियां भी कैसी, टेढ़ी-मेढ़ी, मोटे पापड़ सी, फूलती तो बिल्कुल नहीं, कहीं ठीक सिंकती, कहीं जल जातीं। मिट्टी तेल और बीड़ी के धुएं की मिली-जुली, कसैली गंध चारों ओर फैल रही थी। पार्क से बाहर निकलते-निकलते कदम वहीं ठिठक गए। उसने एक बार नज़र उठाकर, अपने घर में झांकने की चेष्टा करने वाले की शक्ल देखी, फिर निर्लिप्त सी, काम में जुट गई। तवा नीचे रख, अल्यूमीनियम के, बीसियों जगह से पिचके, बर्तन से चटनी और सब्ज़ी के बीच का सा दिखता कुछ निकाला और उतनी ही टेढ़ी एक थाली में रख दिया। उसमें एक रोटी डाली और धूसर चेहरा लिए, मोढ़े पर सामने बैठे चौकीदार को बढ़ा दिया। फिर तवा स्टोव पर डाल दूसरी रोटी ठोंकने लगी। बीच-बीच में बीड़ी के कश लेना बदस्तूर जारी था। चौकीदार ने चेहरे पर बिना कोई भाव लाए रोटी का बड़ा सा टुकड़ा तोड़ा, फिर उसमें सब्ज़ी लपेटकर एकदम से उसके मुंह में ठूंस दिया।उसके निर्विकार चेहरे पर एकबारगी कुछ कौंधा फिर हाथ की बीड़ी फेंक उसने हाथों से कौर को संभाल लिया। दोनों के सिर झुक गए, एक का लाज से, दूसरे का शरारत से। इसके आगे रुकना किसी के नितांत निजी क्षणों में घुसने की अनधिकृत चेष्टा होती सो कदमों ने जल्दी-जल्दी गेट खोल बाहर निकलना तय किया।
प्रेम का बिरवा जो है ना, तबीयत ही जंगली होती है इसकी। कभी जतन के गमलों में भी मुरझा जाता है और कई बार सूखे रेत पर भी लहलहा उठता है।

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