मन पाखी
मन के पंख ना थकते हैं ना डरते
Tuesday, July 28, 2020
Sunday, September 22, 2019
पितृसत्ता की छाँव में 'डॉटर्स डे' की बेल
देश आज
डॉटर्स डे मना रहा है. और जो
अनिश्चितता समाज में बेटियों के अधिकारों को लेकर है कुछ वैसा ही हाल इस प्रतीकात्मक
दिन का भी है. दुनिया भर में वर्ल्ड डॉटर्स डे जनवरी की बारह तारीख को मनाया जाता
है. भारत में इस दिन के लिए सितम्बर का चौथा इतवार निश्चित किया गया है. लेकिन ढूंढो
तो कहीं-कहीं 25 सितम्बर की तारीख भी दिख जाएगी. यूं दो बरस पहले महिला और बाल
विकास मंत्री मेनका गांधी ने अगस्त के महीने में डॉटर्स वीक मनाने का एलान भी किया
था. लेकिन बाद के सालों में इसके बारे में फिर कभी नहीं सुना गया. वैसे तो हमारा
सेल्फी विद डॉटर जैसा अभियान भी इतने ज़ोर-शोर से चला कि गूगल प्ले पर एप्प की
शक्ल में ही जाकर रुका. बहरहाल, दिन भले ही प्रतीकात्मक हो, उसे मनाने से परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए
क्योंकि बड़ा बदलाव छोटी शुरुआतों से ही आता है, फिर भी जब बात डॉटर्स डे की चलती
है तो मन में थोड़ी कड़वाहट तो आ ही जाती है.
दरअसल बेटियों
को आगे बढ़ाने, उनकी हौसलाअफज़ाई के जितने भी तरीके, जितने भी जुमले हमने गढ़े हैं
उन सबका आधार ही पितृसत्ता है. कुछ इस तरह कि आने वाले वक्त में भी उनसे छुटकारे
का कोई रास्ता नज़र नहीं आता. उदार दिखने की चाह में हम केवल बेटियों पर गुमान
करना चाहते हैं, उनके बेटी होने पर नहीं. इन बातों में बारीक नहीं, बहुत बड़ा फर्क
है जिसे कुछ उदाहरणों के साथ समझ पाना शायद आसान होगा.
हमारी बेटी सौ
बेटों के बराबर है- अपनी बेटियों की तारीफ में कहा जाने वाला ये
सबसे लोकप्रिय जुमला है और उतना ही सतही और हतोत्साहित करने वाला भी. समझ में नहीं
आता कि ऐसा कहने वाला इंसान बेटी की तारीफ कर रहा है या फिर खुद को सांत्वना दे
रहा है. जितनी बार हम बेटियों के बेटे के बराबर
होने का दंभ भरते हैं उतनी बार हम उन्हें उनके कमतर होने का एहसास भी कराते जाते
हैं. मानो हम उनसे ये कहना चाहते हों कि सपने तो हमने बेटे के लिए संजोए थे लेकिन
अब मजबूरी में तुम्हें उसका उत्तराधिकार सौंप रहे हैं. सफलता और समृद्धि का जो
परचम लोगों के लिए उनके बेटे फहराते हैं समानता मिलने के बाद अब वो ज़िम्मेदारी भी
तुम्हें ही उठानी होगी. अच्छा होना क्या बेटों की बराबरीकर लेना भर ही होता है? और बराबरी कोई एक लकीर पर चलते रहने से ही हो जाती है? इस तरह की बातें बोल-बोलकर तो हम बेटों और बेटियों को लेकर
घिसे-पिटे मानकों से पीछा छुड़ाने के बजाए उन्हें और पुख्ता किए जा रहे हैं.
हमने अपनी बेटी को बेटों की तरह पाला है- अगर आप वाकई ऐसा कर रहे हैं तो याद रखिएगा कि आप अपनी बेटियों के
साथ ही नहीं समाज के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. इस के पीछे कहने वालों
का मन्तव्य शायद ये होता हो कि वो अपनी बेटियों को घर की जिम्मेदारी से दूर रख पढ़ाई-लिखाई
के बेहतर मौके दे रहे हैं और उनकी अच्छी परवरिश कर रहे हैं. लेकिन ये कर्तव्य तो इंसान
का अपनी हर संतान के प्रति होता है. बेटियों को बेटा बनाने में किसी तरह की
वाहवाही नहीं. ये तो दरअसल उनकी परवरिश में कमी करना है. लड़कियों की शारीरिक और
मानसिक संरचना लड़कों से अलग होती है. उन्हें पालने में ज़्यादा संवेदनशील होने की
ज़रूरत है वैसे ही जैसे लड़कों को पालने में ज़्यादा सतर्कता और लचीलेपन की.
स्वस्थ समाज को पढ़ी लिखी, आत्मविश्वास से लबरेज़ लड़कियों की उतनी ही ज़रूरत है
जितनी सुलझे और उदार लड़कों की. इसलिए बेटी को बेटी की तरह पाले जाने की ज़रूरत
है.
अब लड़कियां भी किसी मामले में लड़कों से कम नही- आए दिन ऐसा सुनते रहना बिल्कुल वैसा आभास देता है
जैसे ये समाज घोड़े की तरह आंखों में पट्टा बांध कर चलता जा रहा है. अब ऐसी
सेलेक्टिव आंखें रहने से अच्छा होता कि समाज की आंखें ही नहीं होतीं. लड़कियां
किसी भी समय, किसी भी समाज में कभी भी लड़कों से कम नहीं थी. अंतर उनकी दक्षता में
नहीं उनको मिले अधिकारों और मौकों में था. दरअसल बराबरी के नाम पर लड़कियों के
अधिकार उन्हें कुछ इस तरह से वर्गीकृत करके दिए जाते रहे हैं कि उनके मिलने और
मांगने की बीच हमेशा एक किस्म की खींचतान मची रहती है. उन्हें पता ही नहीं रहता कि
ये उनका सहज हक है या समाज उनपर तरस खा रहा है. वैसे भी लड़कियों को बेहतर बनाने
का मकसद लड़कों को कमतर दिखाना नहीं होता. ये बड़ी रेखा, छोटी रेखा वाली लड़ाई
नहीं है. इसलिए इस किस्म की तुलना दरअसल मानसिक झोल होती है. इससे जितनी जल्दी
छुटकारा पा लिया जाए उतना बेहतर.
बेटी को जन्म देना एक गर्भ को जन्म देना है- जहां तक याद है ये तर्क एक जानी-मानी फेमिनिस्ट
का दिया हुआ है जिसपर लोगों ने आंखों में आसूं भर तालियां भी बजाई थीं. मतलब इतने
सारे नाटक-तमाशे के बाद हम घूम-फिरकर वहीं आ पहुंचे जहां से शुरुआत की थी. अगर औरत
के होने को एक योनि और गर्भ तक ही समेटना था तो फिर हो हल्ला क्यों मचाया? बेटी को जन्म देने में अगर लज्जा
नहीं होनी चाहिए तो अतिरिक्त गर्व भी नहीं. लड़के या लड़की का जन्म विज्ञान की नज़रों
में जैविक प्रोबाबिलिटी का मसला है, ना उससे कुछ कम ना कुछ ज़्यादा. गर्व होना ही
है तो बच्चों की परवरिश के तरीके पर हो. इंसान का चरित्र उसके लड़का या लड़की होने
से नहीं, परवरिश से तरीके तय होता है. समाज को देखने के उस नज़रिए से तय होता है
जो उनका परिवार उनके लिए बनाता, सहेजता है.
डॉटर्स
डे मनाने के साथ हमें इस दिन का इस्तेमाल इन बेतुके शब्दों और तर्कों को अपनी डिक्शनरी से
डिलीट करने के लिए भी करना चाहिए. बेटियां उस दिन बराबर हो जाएंगी जिसदिन हम
बेखटके कह सकेंगे कि हमने अपनी बेटी को बेटी की तरह पाला है और हमें उसके बेटी
होने पर गर्व है.
Friday, May 10, 2019
मदर्स डे है भई...गिफ्ट का कुछ सोचा?
और इस लिंक पर अगर आप ये सोचकर आए हैं कि यहां
आपको कुछ ऐसे सुझाव या सामान मिलेंगे जो समय रहते आपको मदर्स
डे पर मां को ख़ुश करने के इंस्टैंट तरीके बता दें तो हो सकता है आपको थोड़ी
निराशा हाथ लगे. वो क्या है ना कि सालों के धैर्य से हमें सींचकर बड़ा करने वाली
मां के लिए कुछ भी इंस्टैंट करना ज़्यादती होती है. और वैसे भी तोहफ़े खरीदना कौन
सी बड़ी बात है. चारों ओर मॉल, दुकान, बाज़ार सजे हुए हैं, डिस्काउंट के ऑफरों की
भी कमी नहीं. सोशल मीडिया हो या कोई वेबसाइट, हर मिनट मां के लिए किसी गिफ्ट का
पॉप अप सामने खुल ही जाता है, एक क्लिक, ऑनलाइन पेमेंट और मां की आंखों में ख़ुशी
और कृतज्ञता के आंसू, हो गई छुट्टी अगले साल तक के लिए.
ऐसा ही तो
सिखाया है हमें विज्ञापनों के बाज़ार ने बिल्कुल उन निबंधों के तर्ज़ पर जो हमें
बचपन में दस-बारह पक्तियों में रटा दिए गए. त्याग की प्रतीक, ममता की मूर्ति मां. हमारे जगने से पहले जगने वाली,
हमारी हर ज़रूरत का ख्याल रखने वाली, हमारे लिए रच-रचकर खाना बनाने वाली मां.
मानों मांएं ना हुई उपरवाले की मशीन से निकली ज़ेरॉक्स कॉपी हो गई, सब की सब एक
समान. क्या सचमुच ऐसी होती है मां? क्या सचमुच इतनी ही
होती है मां? मेरी और आपकी मां? नहीं
ना. अपनी मां की नज़र में तो हम दुनिया के सबसे अद्वितीय, सबसे अनूठे बच्चे होते हैं.फिर
हम अपनी मां को विज्ञापनों की स्टीरियोटाइपिंग की नज़र से क्यों देखते जा रहे हैं? विज्ञापन
फिल्मों की सीमित संभावनाओं में सिमटी नहीं होती मां, जो या तो अपने बच्चे की सेहत और रिज़ल्ट
की चिंता में घुलती नज़र आए या उम्रदराज़ हुई तो इस उम्मीद में दवाइयॉं लेती रहे
कि घुटनों का दर्द कुछ कम हो तो अपने बच्चों के बच्चों के साथ खेल सकें.
कभी सोचा है आपने कि क्यों और कैसे आपका होना आपकी
मां की ज़िंदगी की सबसे बडी उपलब्धि बन गई? क्या बचपन से लेकर यौवन और अपनी शादी तक
के साल मां ने इस इंतज़ार में काटे होंगे कि एक दिन उन्हें मां बनना है? नहीं ना. फिर वो कौन
सा सपना था जो पलता रहा मां की आंखों में इतने साल? वो कौन सी ख़्वाहिश थी जिसे मां ने चुपचाप
छुपा दिया ज़िम्मेदारियों और अपेक्षाओं के ढेर के पीछे? अगर परिवार की ज़िम्मेदारी नहीं आई होती
तो कहां पहुंची होती मां?
याद कीजिए, मां की आलमारी आख़िरी बार कब टटोली थी
आपने? एक बार
फिर कोशिश कीजिए. आपके पुराने सामानों, आपके बचपन की यादों और आपके लाए उपहारों के
पीछे छुपी होगी कहीं मां के सपनों, उनकी महत्वाकांक्षाओं की पोटली भी. एक बार टटोल
कर देखिए. हो सकता है कुछ सपने अभी भी ज़िंदा हों. हो सकता है कुछ उम्मीदों के लिए
अभी भी देर नहीं हुई हो और आपके एक ज़रा सा हाथ लगा देने से वो अभी भी हरकत में आ
जाएं. मदर्स डे के ग्रीटिंग कार्ड के साथ मां को एक सपना भी गिफ्ट कीजिए. उनका
देखा एक सपना, जो वक़्त की मारामारी के बीच हाथों से जाने कब फिसल गया. वो चाहे
अधूरी पढ़ाई हो या छूट गई नौकरी. हो सकता है वो बात इतनी मामूली सी हो जिसका
ज़िक्र करने में भी मां को झिझक हो. लेकिन पूरा होना तो हर सपने का हक़ होता है.
फिर यहां तो बात मां की हो रही है.
तो बस सपने देना काफी नही होंगा, क्योंकि ज़्यादा
उम्मीद है उसे पूरा कर पाने का हौसला मां समय के साथ खो बैठी हों. इसके पहले कि वो
हमेशा के लिए एक कसक बन जाए उनके जीवन की, उन्हें वो हौसला भी देना होगा कि वो अब
भी उसे हासिल कर सकती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारे बार-बार गिरने पर उठा देती
थी मां हमें और हमारी आंखों में आंखे डालकर कहती थी ‘तुम कर सकते हो, तुम्हें करना ही होगा,
चाहे जितनी चोट लगे, चाहे जितना वक़्त लगे’.
मां
भोली नहीं होती, वैसे भी हमें दुनियादारी की पगडंडी पर संभलकर चलना और जीना सिखाने वाली मां से बेहतर दुनियादारी का ककहरा और कौन
समझ सकता है. लेकिन नए ज़माने के चलन से मां अनजान ज़रूर हो सकती है. सपने और हौसलों के
साथ मां को वो विश्वास भी चाहिए कि अगर इस नए रास्ते में उनके क़दमों को कभी झिझक
हुई, कभी सब छोड़कर जाने-पहचाने से पुरानेपन में वापस जाने का दिल किया तो बच्चे बड़ी मज़बूती से थामे रहेंगे उनका हाथ.
बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन के बचपन की एक
कहानी तो हम सबने सुनी है, जब उनके स्कूल वालों ने उन्हें ये कहकर स्कूल से निकाल
दिया कि उनकी मानसिक स्थिति पढ़ाई के अनुकूल नहीं है. उस चिट्ठी को पढ़कर उनकी मां
ने बेटे से ये झूठ कहा कि स्कूल वालों का कहना है कि वो इतने कुशाग्र हैं कि स्कूल
की टीचर उन्हें पढ़ा पाने के क़ाबिल ही नहीं, इसलिए उन्हें घर पर ही पढ़ाया जाए. एडिसन
को उनकी मां ने घर पर ही तब तक पढ़ाया जबतक काम की तलाश में उन्होंने घर नहीं
छोड़ा. ज़रूरत पड़ी तो इस बार अपनी मां और उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए हमारा भी
एक छोटा झूठ सही.
मां को सच में कुछ देना है तो दुकान, बाज़ार,
बेवसाइटों के पन्ने मत टटोलिए. एक बार मां का हाथ थाम उसके दिल में झांक लेने की
कोशिश कीजिए. अपनी मां के लिए दुनिया के सबसे नायाब तोहफ़े का आइडिया वहीं मिलेगा.
और हां, हो सके तो मां को महानता के उस घिसे-पिटे
बोझ से मुक्त कर दीजिए जिसे ज़बरदस्ती उनके ऊपर लादकर बदले में हम बहुत बड़ी क़ीमत
वसूलते आ रहे हैं. मां को हमेशा अपनी ज़रूरतों के लिए उपल्बध और फॉर ग्रैंटेड लेना
भी बंद कर दीजिए. जिन माओं ने पढ़े-लिखे ज़िम्मेदार नागरिक बनाए वो अब भी अपने दम
पर समाज को काफी कुछ दे सकती हैं. बशर्ते हम उन्हें उनके परिवार और चाहरदीवारी के
बाहर झांक सकने का मौका दें.
वरना हज़ारों करोड़ रुपए के गिफ्ट मार्केट में
हमारी जेब से चंद रुपए और एक रविवार और सही, एक और मदर्स डे भी यूं ही बीत जाने
देते हैं.
Friday, March 8, 2019
शीशे की चप्पलें या शीशे की छत?
पत्रकारिता की क्लास में अमूमन कुछ भी आउट ऑफ
सिलेबस नहीं होता. उस रोज़ चर्चा का विषय था “कुछ भी हो सकता है” एक लड़की ने चिहुंक कर कहा, “जब अभिषेक को
ऐश्वर्या मिल सकती है तो कुछ भी हो सकता है.”
सहमति में एक साथ कई सिर हिले
‘क्यों भला?’
जबाब लगभग एक, ‘कहां वो ब्यूटी क्वीन, मिस वर्ल्ड और सुपर
स्टार. कहां ये फ्लॉप एक्टर.’
“हां बिल्कुल सही बात है, ऐश्वर्या को तो बल्कि
सलमान खान से शादी कर लेनी चाहिए थी, थोड़ी मार-पिटाई ही तो करता था, और सरे आम
थोड़ी सी बेइज़्ज़ती. है तो अभी तक सुपर स्टार ही.”
इस बार कमरे में असहज सन्नाटा.
ये सुविधाओं, बराबरी के मौकों और आत्मविश्वास से
लबरेज़ आधुनिक लड़कियां हैं. पढ़ाई और रिज़ल्ट का औसत भी लड़कों से बेहतर. फिर भी परवरिश
की कंडीशनिंग ऐसी कि करियर की बुलंदी पर पहुंचने के बाद भी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि
खुद से ज़्यादा सफल और कमाने वाला पति हासिल करना हो जाता है.
दहेज़ में मिली कार की ड्राइविंग सीट पर चौड़ा
सीना किए बैठे एक परिचित से पहले भी इस तरह के मुद्दे पर लंबी बहस हो चुकी है. मैं
फिल्मों की गूढ़ समझ नहीं रखती. अभिषेक, अभिनेता भले ही औसत हों लेकिन मेरी नज़र में
इंसान आला दर्जे के हैं. कई सारे सफल व्यक्तित्वों के बीच खड़े एक औसत
सफलता वाले इंसान के लिए अपना आत्मसम्मान बरकरार रख पाना बहुत संयम और गरिमा का
काम होता है. वो भी तब, जब उन सफलतम व्यक्तियों में से एक उसकी पत्नी हो. अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में, रेड कार्पेट
पर, पुरस्कार समारोहों में, अभिषेक जिस गरिमा और समग्रता के साथ पत्नी के साथ खड़े
होते हैं, उनकी नज़र उतारने का मन करता है.
ये कर पाना मुश्किल इसलिए भी है हमारा दोमुंहा
समाज अपनी सरंचना में तिनका बराबर फेरबदल देखकर भी असंयमित हो उठता है. किसी के
बारे में कुछ भी कह सकने का अभिमान रखने वाला सोशल मीडिया अभिषेक को लेकर ऐसे
बेशर्म चुटकुलों से भरा पड़ा है. बावजूद इसके कि हमारी बुद्धि और कर्म को हर कोण
से प्रभावित और नियंत्रित कर रही फिल्म इंडस्ट्री ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जहां
करियर की ढलान पर पहुंची अभिनेत्रियों ने सफल और शादीशुदा उद्योगपतियों की ट्रॉफी
वाइफ बनना स्वीकार किया है. उस बिज़नेस डील को, जिसमें एक को आर्थिक सुरक्षा और
दूसरे को कैमरा लेंसों की अटेंशन मिलती है, हम खूब शोर-शराबे के साथ परिकथा के
तर्ज पर साल की सबसे सुंदर प्रेमकहानी वाली हेडलाइन बनता देखते हैं. सालों तक उन्हें
प्रेम में डूबे पिक्चर पर्फेक्ट जोड़ी मानकर निहारा करते हैं. लेकिन जैसे ही परिदृष्य
बदलता है, पति-पत्नी एक-दूसरे से जगह की अदला-बदली करते हैं, हमारी चेतना बेचैन
करवटें बदलने लगती है.
पेप्सिको की चेयरपर्सन इंद्रा नुई से वॉशिंगटन
में मिलना हुआ था. इंद्रा को अमेरिकी गृह मंत्रालय की ओर से सम्मानित किया जाना
था. उन दिनों प्रवासी भारतीयों के अखबार इंडिया अब्रॉड में छपे इंद्रा के एक इंटरव्यू
की बड़ी चर्चा थी. उस इंटरव्यू में इंद्रा ने अपनी कामयाबी का सेहरा अपने पति राज
के सिर बांधते हुए कहा था, “जो लड़कियां मेरी तरह अपने करियर में सफल होना
चाहती हैं जाओ पहले अपने ‘राज’ को ढूंढ लाओ.”
राज उस रोज़ भी उनके साथ थे. सौम्य और गरिमामय.
“आपकी बड़ी तारीफ सुनी है”, मैंने राज से कहा.
“अच्छा, मेरे बारे में कौन बात करता है भला”, उन्होंने
मुस्कुराते हुए पूछा.
“मैं, और कौन?” बालसुलभ चपलता से इंद्रा ने जवाब दिया
था.
पूरे इंटरव्यू के दौरान राज कैमरे के फ्रेम से
बाहर उसी सौम्यता से खड़े रहे और इंटरव्यू पूरा होते ही इंद्रा का हाथ पकड़कर
पार्किंग की ओर बढ़ गए. उन दोनों की वो प्यार भरी छवि कई साल बाद भी मेरे जेहन में
ताज़ा है. हालांकि राज एक बड़ी कंपनी के अध्यक्ष हैं और कई दूसरी कंपनियों के
बोर्ड मेंबर भी हैं फिर भी राज नूई के नाम से
गूगल कीजिए, वो इंद्रा के पति के तौर पर ही सामने आएंगे. ये परिचय दुनिया के तमाम
सफलतम कंपनी प्रमुखों और अध्यक्षों के जीवनसाथियों जैसा ही है. बस किरदारों की
प्लेसमेंट, जेंडर के प्रचलित मापदंडों के हिसाब से नहीं है.
और यहीं आकर गड़बड़ शुरु हो जाती है.
सफल पति के पीछे उसकी अनुगामिनी बनी पत्नी समाज
के लिए पिक्चर पर्फेक्ट है. इस तस्वीर में जैसे ही पति और पत्नी ने अपनी जगहों की
अदला-बदली की, सारे समीकरण डगमगाने लगते हैं.
वैसे भी हमे शुरू से बताया गया, हर सफल आदमी के
पीछे एक औरत होती है. लेकिन ज़्यादातर औरतें अपनी सफलता के साथ अकेली रह जाती हैं.
यही नहीं उनकी सफलता का पीछा करतीं चलती हैं, कई असंतुष्टियां और आहत अहम, और चलते
हैं उसके छोड़े अधूरे काम जिन्हें वो चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती. इस तरह कामयाब
औरत अपनी कामयाबी को भी बोझ कर तरह ढोती चली जाती है.
इन्द्रा से हुई उस मुलाकात के कुछ सालों बाद उनके
इंटरव्यू का एक और वीडियो क्लिप वायरल हुआ जिसमें उन्होने स्वीकारा कि, “औरतें बस सोचती हैं
कि उन्हें सबकुछ मिल गया है लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है, वो कितनी भी कोशिश
कर लें, उनसे कुछ ना कुछ ज़रूर छूट जाता है.”
ऐसा इसलिए नहीं होता कि औरतों के करने में कुछ कमी
रह जाती है, बल्कि इसलिए कि उससे सबकुछ एक साथ उठाकर चलने की उम्मीद की जाती है.
और उसे बांटने वाला अगर कोई पुरुष सामने आए तो सामाजिक छिद्रान्वेषी अपने तानों से
उसे वहीं का वहीं ध्वस्त कर देंगे.
पति पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं, सही है,
लेकिन कोई इस रिश्ते में किस तरह की पूर्णता चाहता है वो हर संबंध का निजी फैसला
होना चाहिए. सामाजिक परिपाटी का इससे कोई भी लेना देना क्यों हो?
इस बार वीमेन्स डे पर इनबॉक्स में आए ढेरों
संदेशों में से एक दिल को छू गया, “Teach your daughters to worry less
about fitting into glass slippers and more about shattering glass ceilings”
तो सिन्ड्रेला को पीछे छोड़ते हुए शीशे की एक छत
ऐसी भी तोड़ी जाए कि लड़कियां रह जाएं पेड़ की तरह सतर और अपनी ज़िंदगी के सबसे
ज़रूरी रिश्ते में सहारा नहीं बल्कि सहजता और आत्मविश्वास ढूंढें.
Sunday, January 6, 2019
मांडू देखने के बाद...
नए साल की दहलीज़, इस क़िताब का हाथ थाम कर
लाँघी. एक तरफ पहले सात अध्याय और दूसरी ओर बाक़ी के दो. संयोग ऐसा कि साल के
आख़िरी इतवार इंदौर से मांडू देखने निकलना हुआ. मैं पिछली सीट पर बच्चों के बीच
क़िताब में ऐसी डूबी कि जहाज़ महल पहुँच बाकी लोग कब उतर लिए पता ही नहीं चला. किताब
का नाम देख जेठजी चिढ़ाते रहे, “अरे वही दिखाने तो लाए हैं तुम्हें, पहले उतर तो
लो.” बाज
बहादुर के महल से निकलते-निकलते झुटपुटा हो चला था. जेठजी ने फिर खिंचाई शुरू की, “कहीं किताबों की
दुकान दिखे तो तुम्हारे लिए नई क़िताब ढूँढ लाएं, मैंने मांडू देख लिया.”
मैं क्या बताती, देखा तो लिखने वाले ने भी नहीं
था. वैसे देखने की रस्म क्या बस गंतव्य तक पहुँच कर पूरी हो जाती है?
“पूरे महल में दरवाज़ा तो कहीं है नहीं, ताला कहाँ
लगाते हो?” मैंने खिंचाई शुरू की.
“बाहर के गेट में”, उन्होंने मशीनी जवाब दिया.
“अच्छा सुनो, क्या सचमुच यहाँ रात को राजा की रूह
अपनी रूपमती के साथ गाने गाती है? आवाज़ आती है आपको भी?” मैंने संजीदा होकर पूछा
उनके लिए मज़ाक का बटन अब ऑन हुआ, “आती है ना, हम भी
आकर उनके साथ गाते हैं यहाँ”
मैं उदास हो गई. मालवा का आख़िरी स्वतंत्र शासक, कमज़ोर
सेना का नायक और मौसिक़ी का शौक़ीन, बंजारन की आवाज़ और सौंदर्य पर निछावर, उसे रानी
बना लाया. दुनिया की हर ख़ूबसूरत प्रेम कहानी की तरह इसे भी ताक़त के गुरूर की
नज़र लगी. मुगलिया सेना के सामने राजा के घुटने टेकते ही रानी ने ज़हर खा लिया,
राजा की मौत उसके साल भर बाद हुई. इतनी कहानी गूगल ने बताई. इन महलों के आसपास कोई
गाइड नहीं. रूपमती के महल से नर्मदा की झलक भी नहीं पाई थी. इतवार का दिन
सैलानियों की भीड़ से भरा, ऊपरी मंज़िल पर जाने के लिए कतार लंबी थी, सामने आसमान
में रंग-बिरंगा पैरा सेलर दिखा और मिनट भर में भीड़ तितर-बितर हो उस उड़ते पंछी को
निहारने लगी. उत्साही जन उसके उद्गम स्त्रोत का पता कर बुकिंग करने भी निकल पड़े.
महल की ऊँचाई पर पहुँचकर अपना हर दुख छोटा लगने
लगता है. राजा बाज़ बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कहानी उनकी यादों की ही तरह
खंडहर में तब्दील होती जा रही है. क़िताब में जहाँ मेरी ऊँगलियाँ अटकी हैं, स्वदेश
दीपक के जले शरीर से कीड़ों के साथ मांस के लोथड़े निकाले जा रहे हैं. मैं अगले
पन्ने में लिखी पंक्तियों से ख़ुद को दिलासा दे रही हूँ, “Perhaps there
will come a time when we will be so enlightened, that we will view, with
indifference the brutal, cynical and heartless spectacle that life has to offer”
Saturday, December 22, 2018
बायोलॉजी और साइकोलॉजी का फ़र्क
जाने किस संयोग से बीते हफ्ते दो-तीन
सहेलियों-सहकर्मियों ने बातचीत में जानना चाहा कि पीरिएड्स की उम्र के आस-पास
बेटियों से बातचीत किस आधार पर शुरु की जाए. हम माएँ परवरिश का आधा ककहरा यूँ ही साझा
अनुभवों से सीख लिया करती हैं. मेरे लिए ये बात हालाँकि साल भर पुरानी ही है लेकिन
पहली शुरुआत के बाबत ठीक-ठाक कुछ याद नहीं आया. मैंने बिटिया को ही पूछा, उसने
हँसते हुए याद दिलाया कि पूछने की पहल उसकी ओर से हुई थी. हाँ, और मेरे मुँह से
इतना सुनकर कि ये एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है, वो छूटते ही ये कहती पिता के पास भाग
ली थी कि आपकी बायोलॉजी तो बड़ी वीक थी, पापा बेहतर समझाएँगे. पापा ने बक़ायदा
पेपर पर ड्राइंग कर समझा दिया था.
मेरी बायोलॉजी वाकई कमज़ोर रही लेकिन जुड़वां भाई
के साथ बड़ी हो रही बिटिया को पीरिएड्स को लेकर सहज करने के लिए माँ को बायोलॉजी
से ज़्यादा साइकोलॉजी की समझ चाहिए थी.
हमारी पीढ़ी तक लड़कियों और लड़कों की परवरिश में
फर्क की सबसे बड़ी विडम्बना समझाने की ही रही है. हर बात को जबरन समझाने की जितनी
अनिवार्यता लड़कियों के लिए रही लड़कों को ख़ुद समझदार हो लेंगे के तर्ज पर उससे
उतना ही दूर रखा गया. नामालूम ख़ुद समझ लेने की नौसर्गिक क्रिया लड़कियों के लिए
ही इतनी असंभव क्यों प्रतीत होती रही.
बहरहाल, उसके कुछ हफ्ते बाद बच्चों के स्कूल ने एक
अवेरनेस वर्कशाप कराया. लड़कों का अलग, लड़कियों का अलग. बेटा ने घर आकर चिहुँकते
हुए सबको बताया कि उसे स्कूल में लड़कियों वाले डायपर हाथ में दिए गए. उसके बताने
में तथ्य से ज़्यादा कौतूहल था, जवाब से ज़्यादा सवाल. बायोलॉजी का पाठ उसने बहन
जितना ही पढ़ा था लेकिन दोनों की समझ में अनुभव का जो अंतर आना था वो अपनी जगह
बदस्तूर था. उसे स्कूल में जिन दिनों के दौरान क्लास की लड़कियों से सेंसेटिव रहने
की शिक्षा दी गई थी, वो उन दिनों के बारे में और जानने को उत्सुक हो रहा था.
लड़कियों का डायपर उसकी जिज्ञासा की फेहरिस्त में नया शामिल नाम था. बहन और भाई के
माँ-बाप से छुपाए ढेर सारे राज़ों के बीच ये नई घटना पर्दे की तरह पड़ गई थी.
माँ, बेटे से बात करने के लिए सही शब्दों के
वाक्य विन्यास बुनने की प्रक्रिया में थी कि एक दिन शॉर्टकट सूझ गया. दरवाज़ा
खोलते वक्त बेटे की नज़र केमिस्ट की दुकान से आए थैले पर थी, माँ ने थैला सीधा
उसके हाथ में पकड़ा कर कहा, इसमें बहन के लिए सैनेटरी नैपकिन्स हैं, जाकर उसे दे
दो.
बेटा ने चुपचाप काम पूरा किया और उसके बाद इस
बारे में कोई सवाल नहीं किया. ना माँ से, ना बहन से.
माँ होना ताज़िंदगी एक ही कक्षा में एक ही पाठ को
अलग-अलग तरीक़े से पढ़ने जैसा है. आप रोज़ नए तरीके सीखते हैं, अनुभव की नई गाँठ
रोज़ आपके दुपट्टे के छोर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है. कुछ बातों को समझा पाने
के लिए शब्दों की बहुलता से ज़्यादा शब्दों की किफ़ायत काम आती है. हमारे बीच तमाम
दूसरी बातों की फेहरिस्त इतनी लंबी रहती है कि इस बारे में हमने वाकई लंबी बात
नहीं की. यूँ भी महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप समझाते समय शब्दों का चयन किस
निपुणता से करते हैं. ज़रूरी ये है कि समझा पाने के बाद आपके शब्द आपके दैनंदिन
व्यवहार में परिलक्षित होते हैं कि नहीं.
धूप सेंकते हुए हम दोनों ने बड़े महीनों बाद इस
बात पर सच में बात की है, “फिर, अब कैसे डिफाइन करोगी तुम पीरिएड्स को?”
“इट्स अ बायोलॉजिकल प्रॉसेस”, मुझसे नज़रें मिलाती हुई वो ज़ोर से
हँसती है.
माँ ख़ुद से संतुष्ट है, इस मामले में साइकोलॉजी
के हिस्से की ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभ गई हैं, अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं बची.
Sunday, December 16, 2018
टूटती वर्जनाओं के दौर में..
नई नवेली अभिनेत्रियों में सारा अली खान पसंद की सूची में तेज़ी से अपनी जगह बनाती जा रही है. उसकी अभिनय क्षमता हो, इंटरव्यू देने की दक्षता या फिर परिष्कृत हिंदी में किया वार्तालाप, पिछले कुछ महीनों में हर जगह उसने तारीफ़ें बटोरीं हैं. इन्हीं तारीफों के बीच पिछले हफ्ते एक न्यूज़ चैनल को दिया सारा का इंटरव्यू क्लिप नज़र के गुज़रा. अपने बढ़े वज़न के दिनों को याद कर सारा ने बड़ी सहजता से कहा कि उसे ‘पीसीओडी’ है जिसकी वजह से वज़न बड़ी आसानी से बढ़ जाता है और उसे कम करना उतना ही मुश्किल होता है. क्लिप को रिप्ले कर दोबारा सुना. समझ नहीं आया लड़की से भोलेपन और नएपन में ये चूक हो गई या फिर बड़ी समझदारी से अपनी पीढ़ी की लड़कियों के लिए एक मिसाल क़ायम कर गई ये.
पीसीओडी यानि पॉलीसिस्टिक ओवेरी डिज़ीज़ औरतों से
जुड़ी परेशानियों की फेहरिस्त में जुड़ा वो नाम है जो बड़ी तेज़ी से नई पीढ़ी को
अपनी चपेट में ले रहा है. हर दस में से एक भारतीय महिला इस रोग से पीड़ित है. पीसीओडी
या पीसीओएस एक किस्म का हार्मोनल डिस्बैलेंस है जिसमें अंडाशय के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे
सिस्ट बन जाते हैं. पीसीओडी
का संबंध केवल बेवजह वज़न बढ़ने से ही नहीं है, इसके मरीज़ों के लिए पीरिएड्स के दिन
ज़्यादा तकलीफदेह भी होते हैं. मर्ज़ ज़्यादा बढ़ जाए तो डायबीटिज़, एक्ने या
इंफर्टीलिटी जैसी दूसरी बीमारियों की वजह भी बनता है. बीमारी फिलहाल लाइलाज़ है और
इसमें होने वाली तक़लीफ बेतरह. ज़ाहिर है जिस बीमारी के तार पीरिएड्स या गर्भधारण से
जुड़े हों उसके बारे में लड़कियों को नेशनल टेलीविज़न पर यूँ बिंदास अंदाज़ में तो
क्या फुसफुसाकर बात करने की बंदिश है. और ये पच्चीस बरस की लड़की अपनी पहली फिल्म
के प्रमोशन के दौरान इतनी सहजता से कह गई कि उसे पीसीओडी है जिससे उसका वज़न तेज़ी
से बढ़ जाता है और उसे दोगुनी मेहनत लगती है उसे वापस कम करने में. सिने तारिकाओं
की ‘सो
परफेक्ट’ और ‘सो पॉलिटिकली करेक्ट’ दुनिया में उसका अपने
‘नॉट सो
परफेक्ट’ शरीर के
बारे में सहजता से बात करना सुखद लगा.
पीसीओडी का नाम पहली बार दो बरस पहले सुना जब एक
स्टूडेंड ने हिचकते हुए एक पुरुष टीचर से बात करने में मेरी मदद मांगी थी. उसे पीसीओडी
था जिसके ब्लड टेस्ट के लिए अपने मासिक चक्र के दूसरे दिन उसे एक क्लास टेस्ट छोड़
हॉस्पीटल जाना था. उस वक़्त तो उसकी समस्या का समाधान कर दिया लेकिन बाद के दिनों
में इस मुद्दे पर खुलकर बात करने या नहीं करने को लेकर उससे कई बार लंबी चर्चा की.
निष्कर्ष ये कि उसके अगले सेमेस्टर जब उसे कम्यूनिकेशन रिसर्च का प्रोजेक्ट पूरा
करना था तो उसने पीसीओडी और उसपर खुलकर नहीं हो रही बातचीत की वजहों की पड़ताल
करनी चाही. अगले तीन महीने तक वो कैंपस में पीसीओडी की मरीज़ों की ढूंढती, उनके
इंटरव्यू करती रही. इस दौरान जब भी उसे प्रोजेक्ट से जुड़े कुछ सवाल करने होते हम
क्लास में सारे छात्र-छात्राओं के बीच खुलकर इसपर बात करते. कम्यूनिकेशन की क्लास
में विषय चाहे जो हो, संवाद किसी तरह भी बाधित ना हो, मेरी कक्षाओं में ये संदेश
शुरू से साफ रहा है.
बहरहाल, मास कम्यूनिकेशन की दूसरी विधा से जुड़ी लगभग
उसी उम्र की एक लड़की ने इस विश्वास को फिर से पुख्ता किया है. एक-एक कर वर्जनाऐं यूँ
ही टूटनी चाहिएं. नई पीढ़ी की लड़कियाँ अपने आप को सहजता से स्वीकारना सीख रही
हैं. अपनी कमियों और अपनी ख़ूबियों के साथ आत्मविश्वास से अपनी ज़मीन तैयार कर रही
हैं.
कई बरस पहले एक ज़बरदस्ती के हितैषी ने सलाह दी
थी कि मुझे अपने थॉइराइड होने वाली बात भावी जीवनसाथी से यथासंभव छुपाकर रखनी
चाहिए. मैंने दूसरी मुलाक़ात के दूसरे वाक्य में सब बता दिया था. रिश्तेदारों की
थोड़ी बात तो माननी ही चाहिए.
Sunday, December 9, 2018
जाते साल के फुटनोट्स
आँखें, अलार्म बजने के कुछ मिनट पहले स्वत: खुल
जाती हैं. फिर तय समय की ओर एक-एक बढ़ता सेकेंड रक्तचाप पर दवाब बढ़ाता जाता है.
अलसाई ऊँगलियों से अलार्म बंद कर चादर में वापस मुँह छिपाने की मचलन जाने किन तहों
में समा गईं है. सख़्त उँगलियाँ तय समय से कुछ सेकेंड पहले मोबाइल हाथ में उठा
अलार्म को ठिकाने लगा कटाक्ष में मुस्कुराती हैं, जैसे किसी नादान बच्चे का मासूम सरप्राइज़ स्पॉइल
करने की परपीड़ा का लुत्फ़ उठा रही हों.
अब उठना होगा, समय से बंधकर रहना अच्छी गृहस्थियों के गुण हैं. वैसी औरतों के जो उदाहरण बन जाएँ सबके लिए. इस बात का कोई ज़िक्र कहीं भूले से भी ना हो कि बेचैनियों का सबब कुछ ऐसा कि जिस दिन घड़ी के साथ जितना सधा क़दमताल किया, वो तारीख़ अंदर से उतना ही खोखला कर गई. किसी दिन रसोई में तरतीब से लगे डिब्बे निहारते-निहारते उन्हें उठाकर सिंक में फेंक देने का मन हो आए तो उँगलियों तो चाय के कप के इर्द-गिर्द भींच बाल्कनी में निकल लेना चाहिए. पिछली सालगिरह पर तोहफे की शक्ल में मिले एक पत्ती बराबर मनी प्लांट की लतड़ियां सहारा देते डंडे को चारों ओर से अलोड़तीं, रेलिंग से उसपार उचकने लगी हैं. मन चाहे कितना भी विषाक्त हो प्रिटोनिया, अरहुल और गेंदे की खिली शक्लें देख उन्हें नोच फेंकने जैसे ख़्याल तो नहीं आएँगे.
ऊंगलियाँ ठुमककर आती ठंढ में ठिठुरने को बेताब हैं ताकि भारी पलकों को
अपने पोरों से सहलाकर थोड़ी राहत दे पाएँ. दिसम्बर यूं भी साल का सबसे बोझिल महीना
होता है. जाने कितनी टूटी ख्वाहिशों, अधूरी कोशिशों और टीसते सपनों का हिसाब करता
कोई दुष्ट साहूकार हो जैसे. इससे नज़रें मिलाने का मन ही नहीं करता. इसके पीठ पीछे
खड़ा तारीखों का वो जमघट भी है जो नए साल की शक्ल में जल्द इसके कंधे पकड़ पीछे
छोड़ देगा. पूरे के पूरे पहाड़ सा खड़ा आने वाला नया साल. जी में आता है आते ही
उसके सारे मौसमों को नोंच-उखाड़कर यहां वहां चिपका दूं. एक बार ये बरस और उसके
महीने भी तो देखें कि सिलसिलेवार नहीं जी पाना भी एक किस्म की नेमत है. कि बेतरतीब
मन की चौखट तक सपने ज़्यादा सुगमता से दस्तक दे पाते हैं. कि सपने हकीकत से पलायन
नहीं जी पाने की वजह और ताकत दोनों होते हैं.
बेचैन मन को वक्त का ठहरना भी पहरेदारी लगती है और उसका चलते
जाना भी. आँखें बंद कर उस अधेड़ चेहरे को याद करने की कोशिश करती हूँ जिसकी ट्राली
में बैठ स्विट्ज़रलैंट में ज़रमैट से मैटरहॉर्न की यात्रा की थी. हम हिमआच्छादित
पहाड़ों की विहंगम स्निग्धता को बड़े-बड़े घूंट भर पीए जाते थे कि उसकी याचना भरी
आवाज़ आई, तुम्हारे देश में तो ख़ूब बड़े शहर होते होंगे.
हाँ, और धूल-धुआँ और शोर भी.
जो भी हो, मैं सब देखना चाहता हूँ, शहर, धूप, धूल, समुद्र सब
चलेगा मुझे, बस अब इन पहाड़ों को एक दिन के भी नहीं झेल सकता.
उस रोज़ हम अविश्वास में हँसे थे, आज उसकी बेचैनी जानी-पहचानी
लगती है.
ज़िंदगी दरअसल इर्द-गिर्द बिछी ढेर सारी चूहेदानियों का मकडजाल
है, जितनी ताक़त एक से
बचकर दूसरी के किनारे से निकलने में झोंक कर वक्त बिता देने में लगती है उतनी ही
किसी एक में फँसकर उम्र गुज़ारने में भी. उम्र बहुत गुज़र जाए तो पता चलता है कि बच बचकर निकल जाना भी उतनी ही बड़ी सज़ा है
जितनी किसी एक में फंसकर रह जाना.
सारी उम्र ग़लतियों से पर्दा किया, इस डर से कि जाने
कब कौन सी ग़लती ज़िंदगी पर ही भारी पड़ जाए. इस डर से कोई ग़लती ना हो पाई, ग़लती से भी नहीं.
अब ये डर सोने नहीं देता कि कहीं ये समझदारी ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती ना बन
जाए.
Sunday, November 25, 2018
सफरकथा: शिकारगाह से पक्षी विहार बने अरण्य की सैर
सुबह की हवा में हर रोज़ बढ़ती नमी को देखते हुए
सूरज देव ने अपना अलार्म क्लॉक भले ही थोड़ा आगे की ओर सरका लिया हो, भरतपुर के
केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में सुबह की सुगबुगाहट अभी भी अपने समय से
ही शुरु हो जाती है. पार्क के गेट और टिकट खिड़की के खुलने का समय छह बजे है और
उसके पहले ही वहां कैमरा और दूरबीन टांगे सैलानियों की कतार लग चुकी होती है.
टिकट से ज़्यादा होड़ रिक्शा लेने की होती है
क्योंकि पार्क के दोनों ओर के ग्यारह किलोमीटर का सफर सरकारी मान्यता वाले रिक्शे
या फिर किराए पर ली गई सायकिल पर बैठकर ही पूरा किया जा सकता है. पहले दिन नाश्ता
निबटाकर आठ बजे पहुँचने की ग़लती की तो अंदर जाने वाले रिक्शों के लिए इंतज़ार
करते सूरज सर पर चढ़ गया था. तभी दूसरे दिन हम गेट खुलने के पहले ही पहुंच कतार
में शामिल हो गए.
ये अरण्य दो नामों की वजह से जाना जाता है. पहला,
पक्षी वैज्ञानिक डॉ सालिम अली का, जिनके अथक प्रयासों से ये पार्क वो शक्ल ले पाया
जिसके चलते हर साल लाखों सैलानी यहां खिंचे चले आते हैं, और दूसरा, केवलादेव यानि
भगवान शिव का जिनका मंदिर पार्क के दूसरे छोर पर है. डॉ सालिम अली के नाम का
टूरिस्ट इंटरप्रटेशन सेंटर पार्क के गेट से चंद मिनटों की दूरी पर है जहाँ
ज़्यादातर सन्नाटा पसरा रहता है. दूसरे छोर पर बने एतिहासिक केवलादेव मंदिर तक
पहुँचने वाले सैलानियों की तादाद भी ज़्यादा नहीं होती. हालाँकि पार्क के बाक़ी का
हिस्सा, सैलानियों की चहल-पहल से भरा रहता
है.
अभ्यारण्य में अगर अनुभवी रिक्शे वाले का साथ मिल
गया तो टूर गाइड लेने की कोई ज़रूरत नहीं. चूंकि रिक्शे वालों का मीटर घंटे के
मुताबिक चलता है, वे बड़े तफ्सील से एक-एक स्पॉटिंग लोकेशन पर रुकते, पत्तों के
झुरमुठ में छिपे पक्षियों को देखते-दिखाते चलते हैं. क़िस्मत से दूसरे दिन हमें
अमर सिंह जी के रिक्शे की सवारी मिली. चालीस साल से पार्क में रिक्शा चला रहे अमर
सिंह के बायोडाटा की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि उन्होंने डॉ सालिम अली के साथ भी
काम किया है. वो गर्व से बताते हैं कि ऐसा कोई टूर गाइड भी नहीं जो इन पक्षियों के
बारे में उनसे ज़्यादा जानता हो. एक शांत और वीरान जगह पर रिक्शा रोकते हुए हमें
चुपचाप नीचे उतरने का इशारा होता हैं, “ग्रे हॉर्नबिल्स का जोड़ा है वहां, डॉ अली का
पसंदीदा पक्षी था ये.” हमें थोड़ा
आश्चर्य हुआ इतने ख़ूबसूरत पक्षियों के रहते भला डॉ अली को मैदानी इलाकों में हर
जगह पाए जाने वाले धनेश पक्षियों से सबसे ज़्यादा प्यार कैसे हो सकता है. लेकिन
अमर सिंह के ज्ञानकोश को चुनौती देने की हमारी कूवत नहीं. वैसे भी जब डॉ अली मोर
की जगह, लुप्त हो रहे ‘ग्रेट
इंडियन बस्टर्ड’ यानि ‘सोहन चिड़िया’ को राष्ट्रीय पक्षी
बनाने की जंग छेड़ सकते थे तो हॉर्नबिल्स को सबसे ज़्यादा प्यार भी कर सकते थे.
सर्दियों में यहाँ साढ़े तीन सौ से भी ज़्यादा
प्रजाति के पक्षी देखे जा सकते हैं. लेकिन सबसे पहले नज़र आता है नींद में मग्न
स्पॉटेड उल्लूओं का परिवार. वैसे तो यहाँ केवल उल्लुओं की ही सात प्रजातियाँ हैं
लेकिन ये वाली शान किसी और की नहीं.
सुबह के सन्नाटे को ‘लाफिंग डव’ की हँसी रोशन किए जाती है. हर सौ मीटर पर
रिक्शे से उतर, कबूतरों और सारसों की कई और प्रजाति के साथ बाँग्लादेश से आए ब्लू
रॉबिन, सुदूर दक्षिण से आ पँहुचे किंगफिशर, स्नेक बर्ड, ट्री पाई जैसे नाम सुन, उन्हें
क़ैमरे में क़ैद करते सुबह का दोपहर में बदलना भी नोटिस नहीं करते.
झील के पानी में दो साल बाद हलचल होने को है.
पिछले साल पानी कम होने के चलते यहां बोटिंग नहीं हुई तो इस बरस सरकारी कार्यवाही
में हुई देर के चलते तय समय से महीने भर बाद हरी झंडी मिली है. लेकिन हमारे जाने
की तारीख़ तक बोटिंग शुरू नहीं हो पाई.
“आपको दो-तीन हफ्ते बाद फिर से आना चाहिए”, हमारे गाइड और
चालक ने घंटे भर में तीसरी बार हमसे ये बात कही है. तब तक कई सारे नए पक्षी और आ
जाएँगे. लेकिन साइबेरियन हंसो का जोड़ा अब यहाँ कभी नहीं आ पाएगा. उनकी आवाज़ में
ये बताते हुए अफसोस है कि कुछ बरस पहले यहाँ से वापस जाते वक्त हिमालय की तराई में
उनका शिकार कर लिया गया. हालाँकि अगर हमारी किस्मत साथ दे तो भारतीय हंसों से
जोड़े को हम आज भी देख सकते हैं. कई बार घूमते-घामते वो सड़क से दिखाई देने वाली
दूरी तक आ जाते हैं. हमारी क़िस्मत उस दिन आधी साथ थी, दूरबीन से प्रेमरत हंस
दिखाई दे गए, क़ैमरे में क़ैद नहीं हो सके.
सैलानियों की सबसे ज़्यादा भीड़ ‘पेंटेड स्टोर्क्स’ की कालोनी के सामने
जमा होती है. सैकड़ों रंगीन सारसों के कलरव से ये पार्क का सबसे गुलज़ार हिस्सा भी
है. सारसों की ब्रीडिंग खत्म होने के चलते झील के बीचों बीच बबूल के पेड़ों की कोई
डाली ऐसी नहीं बची जिसपर घोंसला ना हो और उन घोंसलो से चोंच निकाले, रूई के गोलों
से सफेद चूज़े, अपने खाने के इंतज़ार में शोर ना कर रहे हों. पूरी तरह वयस्क होने
पर इन सारसों की चोंच नारंगी और शरीर पर नारंगी, गुलाबी और काली धारियां नज़र आने
लगती है. इस वजह से इन्हें ‘पेंटेड स्टोर्क्स’ का नाम मिला है.
पार्क में आने वाले प्रवासी पक्षियों को अपना
शीतकालीन आशियाना पहले से कुछ ख़ाली-खाली, उजाड़ सा दिखेगा. इस साल मई में आए
भयंकर तूफान में हज़ारों की तादाद में पेड़ गिर गए थे. पार्क की मुख्य सड़क के
दोनों ओर ही विशालकाय पेड़ गिरे नज़र आते हैं जिन्हें यहां के नियमों के मुताबिक
उठाया नहीं गया है.
एक समय ये पार्क, राजस्थान के राज परिवारों और
अंग्रेज़ हुक्मरानों का शिकारगाह था. कभी यहां दिनभर में मारे गए पक्षियों की
संख्या पत्थरों में खुदवा कर रखी जाती थी. केवलादेव मंदिर के सामने बड़े-बड़े
शिलालेख, यहां के शिकार के इतिहास की तस्दीक करते हैं. एक दिन में सबसे ज़्यादा
पक्षियों के शिकार का रिकॉर्ड 1938 में वॉयसराय, लॉर्ड लिनलिथगो के नाम है. उस साल
नवंबर की बारह तारीख को इस जंगल में 4,273 पक्षियों का शिकार हुआ था जो अभी तक
विश्व रिकॉर्ड है.
उन शिलालेखों से ध्यान हटाकर हमने केवलादेव शिव
मंदिर की ओर रुख किया. बोगनविला की लताओं के बीच छोटे सा मंदिर अपनी जीर्ण-शीर्ण
अवस्था में भी आमंत्रित करता है. हालांकि बहुत कम लोग यहाँ तक आते दिखते हैं.
हमारे हाथों में बड़े प्रेम से प्रसाद रखते पंडित
जी को उनसे बातचीत की हमारी उत्सुकता भली लगती है. हमें अपने हाथों के बने
कढ़ी-चावल और चूरमा खिलाने के प्रस्ताव की मनाही के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं
हुआ. मंदिर के इतिहास के बाद उनकी शिकायतों की बारी है, “घर-परिवार छोड़ पचास सालों से यहाँ रह रहा
हूं, राज परिवार के ट्रस्ट से मिली 24 हज़ार रुपए सालाना तनख्वाह पर काम चलाता
हूं, मज़ाल है जो सरकार ने एक पैसा भी इस मंदिर पर ख़र्च किया हो.” पार्क के गिफ्ट शॉप
के अधिकारी, पुजारी जी की शिकायत पर हौले से मुस्कुराते हैं, “धार्मिक आस्था का प्रश्न नहीं होता तो सरकार इस
मंदिर को कब का हटवा चुकी होती. पक्षी अभ्यारण्य में भला मंदिर का क्या काम?”
इस सवाल पर लंबी बात हो सकती है लेकिन फिलहाल
अपने रिक्शे वाले का शुक्रिया करने का वक्त है. “दोबारा ज़रूर आना”, उनका आग्रह जारी है.
बाहर निकलते समय हमने अपना कैलेंडर खोला, नबंबर
के आख़िर में शायद एक और लंबा सप्ताहांत मिले.
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