Sunday, April 8, 2018

सफरकथा: संवेदनशून्यता का हासिल




साल 2001 का मार्च महीना था, आजतक के शुरुआती महीने थे. पहले बजट की कवरेज की मारामारी थोड़ी धीमी हुई थी कि नानी की गंभीर हालत की खबर मिली. हड़बड़ी में होली से एक शाम पहले स्लीपर में टिकट कटवा मैं निकल भागी. रात तक ट्रेन जिन भी स्टेशनों से गुजरी, बंद शीशे पर गोबर, मिट्टी, जाने क्या-क्या फेंका जाता रहा. सुबह होते ही बाहर अपेक्षाकृत शांति हुई और बोगी करीब-करीब खाली. मेरे हाथ में एक दोस्त से मांगी अंग्रेज़ी की एक किताब थी जिसे और फटने से बचाने के लिए अखबार का कवर चढ़ाया गया था. सामने बैठे अधेड़ सज्जन ने कनखियों से देखते रहने के बाद कई बार बात शुरु करने की पहल की. उनकी उत्सुकतता मेरी पढ़ाई और नौकरी से शुरु होकर, मेरे अकेले होने की वजह और मेरी किताब का कवर हटाकर झांकने तक पहुंच चली तो एक तरह से डपट देना पड़ा.

साइड वाली बर्थों पर दिल्ली से ही चढ़ा एक खोमचेवाले का परिवार था. मियां-बीवी और चारेक साल का एक बच्चा. वो पढ़े लिखों वाली बात से दूर अपने आप में मगन रहे. थोड़े समय बाद अंकल जी उन्हें हिकारत से देखते हुए उतर लिए. मुझे दोपहर बाद पहुंचना था. ट्रेन हस्बेमामूल लेट हो गई. खाना तो दूर पानी तक देने वाला कोई नहीं. धूप से बचने के लिए साथ वाला परिवार पीछे के कम्पार्टमेंट में चला गया. दूर से कुछ लड़कों के हंसने-गाने की आवाज़ आ रही थी. इसके अलावा पूरी ट्रेन में किसी की आहट नहीं. मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. डर से वॉशरूम तक जाने की हिम्मत नहीं हुई. घबराहट में मैंने आंखें बंद कर लीं. कई मिनट बाद किसी के स्पर्श से खोली, वो बच्चा खड़ा था, फुआ, मम्मी पूछी, आपकौ कुछो चाही. मुझे राहत और खुशी के मारे रो दोना चाहिए था, मैं बस इंकार में सिर हिला सकी. वो टुनमुनाता हुआ चला गया. दसेक मिनट बाद फिर आया, एक ठेकुआ और आधी बोतल पानी के साथ. मैंने चुपचाप ले लिया. झुटपुटा सा हुआ तो मां ने बच्चे को फिर फुआ का हालचाल लेने भेजा. उसके कुछ मिनटों बाद हम सबका स्टेशन आ गया था.

इतने साल बीतने और इस बीच जीवन की इतनी सारी ठेलम-ठेल निकल जाने के बीच उस छोटी सी घटना को याद रखने का कोई ख़ास प्रयोजन नहीं था. मैं नहीं ही याद कर पाती अगर कुछ हफ्ते पहले मां-पापा को ट्रेन में विदा नहीं किया होता तो. इस बार टिकट एसी टू में था, कन्फर्म. बस दोनों सीटें उपर की मिली थीं. मैंने चिंता ज़ाहिर की तो मां हंस पड़ीं, कौन सा वेटिंग का टिकट है जो परेशानी होगी, इस देश में बूढ़ों की इतनी फिक्र अभी भी है सभीको.

सामान पैक करते वक्त हमने उस सफर की यादें भी ताज़ा कर लीं जब मेरी नौकरी के शुरुआती दिनों में वो दिल्ली में मुझे छोड़ आरएसी टिकट पर वापस जा रही थी और उन्हें सीऑफ करते वक्त मैंने रोते-रोते साथ बैठे लड़के से उनका ख्याल रखने को कहा था. बाद में मां ने बताया था कि कैसे पूरी रात वो मां के पैरों के पास बैठा रहा था, उन्हें कोई तकलीफ नहीं होने दी. मुझे हर ओर से निश्चिंत कर मां-पापा चले गए.

कम्पार्टमेंट के तीनों लोअर बर्थ दो टीनएज बच्चों के साथ सफर कर रहे एक परिवार के थे. मां-पापा ने रात के खाने के बाद उस परिवार से सीट बदलने की चर्चा की. उन्होंने सीधा इंकार कर दिया. अगल-बगल के कम्पार्टमेंट में भी कोई नहीं मिला. पापा तो किसी तरह उपर चढ़ गए, मां के आर्थराइटिस ने बहुत कोशिश के बाद भी उन्हें उपर के बर्थ तक पहुंचने नहीं दिया. पापा लाचारी से नीचे देखते रहे, इतनी कोशिश से मां का दर्द बढ़ गया. सहयात्री परिवार इन सब बातों से इम्यून, तय समय पर बत्ती बुझाकर सो गया. मां आधी रात के बाद तक उनकी किशोरी बेटी के पैरों के पास बैठी रही. रात के दो बजे टीटी उन्हें दूसरी बोगी में एक सीट दिलवा पाने में कामयाब हुआ. अगली सुबह मां लगभग बीमार होकर अपने घर उतरीं.  

कोई विमर्श नहीं, कोई प्रवचन नहीं. बहुत सारी पढ़ाई और तरक्की के बाद हाथ में फोन, लैपटॉप, हाई स्पीड इंटरनेट और क्रेडिट कार्ड लेकर बैठी मैं, बेचैन सोच में पड़ी हूं. आधी ज़िंदगी गुज़र गई, ना मैं अपनी बेटी को निश्चिंत होकर सड़क पार की बिल्डिंग में भेज पाने के काबिल बन पाई हूं, ना अपने माता-पिता को सहूलियत से एक ठौर से दूसरे भेज पाने के.

No comments:

Post a Comment