मेरे
कदमों की आहट सुनकर भी उन्होंने सिर नहीं उठाया, झुके सिर को हल्का सा हिलाकर ही जैसे
मेरे आने का संज्ञान ले लिया. सामने फैली क्रीम कलर की भागलपुर सिल्क की साड़ी के
आंचल पर कचनी और भरनी के मिश्रण से सखियों संग फूल चुन रही सीता की आकृति उकेरेते
आज उन्हें चौथा दिन था. उनके सधे हाथों ने मिरर इमेज में एक जैसे दो दृश्य उकेर
दिए थे.
‘ये पूरा हो जाए तो
किनारे की फूल पत्तियों में एक दिन लगेगा बस’, उन्होंने अपनी कलम
अलग हटाते हुए कहा.
उस रोज़
उनकी साड़ी का रंग चटख हरा था, हल्की नारंगी किनारी के साथ. लेकिन दूर से देखने पर
जो चीज़ सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करती थी वो थी मांग में भरी गहरे लाल रंग की
सिंदूर की रेखा. इधर दिल्ली में चूड़ी की दुकानों में जो सिंदूर मिलता है उनके रंग
में वो बात नहीं होती. ये लाल तो बंगाल में देवी को चढ़ाए जाने वाले सिंदूर सा था.
जितने दिनों तक हम मिलते रहे उनकी वेशभूषा में केवल साड़ी के रंग और उसकी मैचिंग
छोटी सी बिंदी का फर्क ही देखा. कमर तक झूलती चोटी, गले में लाल-सफेद मोतियों में
गूंथा सोने का छोटा सा पेंडेंट और उससे मेल खाते टॉप्स, बाटा की भूरे रंग की
चप्पलें और घर में सिले झोले पर चक्राकार में उभरी मधुबनी पेंटिग की मछलियां.
अब उनके
पास केवल चाय पीने भर का समय था, फिर उनसे सीखने आने वाली लड़कियों का एक पूरा बैच
जमा हो जाएगा. हमारे छोटे से शहर के जर्जर सरकारी कॉलेजों में पढ़ने वाली चहकती,
खिलखिलाती लड़कियां जिन्हें पढ़ाई के साथ कुछ और गुण सीख लेने की हिदायत थी,
ससुराल जाने से पहले-पहले. सौ रुपए महीना की फीस पर वो इन दिनों अलग-अलग प्रकार की
मछलियां उकेरना सीख रही थीं. उन लड़कियों के जाने के बाद वक्त होता घर गृहस्थी की
सूत्रधार, तीस पार की औरतों के आने का, जो अपने पति, बच्चों को खिला-पिला कर दोपहर
बाद की ऊब मिटाने एक-एक कर जुटने लग जाया करतीं.
उनमें से ज़्यादातर को सीखने में कोई रुचि नहीं थी, गृहस्थी के बही-खाते में
जोड़-तोड़ कर बचाए पैसों से वो हर दोपहर अपनी आज़ादी ख़रीद रही थीं.
जिस घर
के भीतरी बरामदे पर ये कक्षाएं लगा करतीं उसकी मालकिन के चेहरे पर सबसे ज़्यादा ऊब
नज़र आती. अपने बरामदे के उपयोग के लिए वो सिखाने वाली से कोई पैसे नहीं लेती,
बदले में कभी चादर, कभी साड़ियों पर पेंटिंग करवा लिया करतीं. औरतों का जमघट दो-चार
लकीरें खींचने के बाद कागज़ परे सरका देता और सिखाने वाली के चेहरे पर हल्की सी
खिन्नता नज़र आया करती. उन गदबदी औरतों के बतकुंचन, शिकायतों और ठिठोलियों के बीच
वो अक्सर नेपथ्य में चली जाया करती थी. अपनी कला को लेकर ये उदासीनता उन्हें कभी
रास नहीं आती.
“आप अपने घर में
सिखाया करें तो केवल सीखना चाहने वाले ही आया करेंगे”, उनसे इसी आशय का कुछ कहा याद सा है.
“घर नहीं है, नैहर
में रहते हैं हम”. उनकी आवाज़ सपाट थी.
मैंने
सिंदूर की गाढ़ी रेखा से ध्यान हटाते हुए बस चेहरे पर नज़र जमा दी.
“दुरागमन करवाने भी
नहीं आया, बोला ठगा गए. चालीस बराती तीन शाम खाना खाया और बदला में तीन टूक गहना
और चार जोड़ साड़ी छोड़ गया हमारे लिए”, उन्होंने अपने
गले, कान की ओर इशारा किया.
“तो आप क्यों उसके
नाम का सिंदूर लगाती हैं, छोड़ क्यों नहीं देती,” मेरी सोलह-सत्रह
साला आवाज़ में पढ़ी गई क्रांतिकारी कहानियों से जुटाया जोश उभर आया था.
“सिंदूर किसी के नाम
का नहीं होता, बस श्रृंगार का सामान होता है. ये हमारा टिकट है
आराम से घूम-घूमकर अपना काम करते रहने का. सिंदूर देख कर हमको कोई नहीं टोकता”.
“आपके घरवाले?”
“हम उनको नहीं देख
पाते. दिन भर काम में निकल जाता है.”
“और आपकी ज़िंदगी”, मैंने स्मृति में पढ़ी गई रोमांटिक किताबों के पन्ने टटोले.
“कितनी अच्छी तो चल
रही है”, सामने बैठी औरतों की टोली को देखते हुए वो
मुस्कुराने लगी.
“तीन साल और, उन्होंने
उंगलियों पर जोड़कर हिसाब लगाया, तब तक हम सेंटर खोल लेंगे अलग से, आजकल खूब
डिमांड है इसका. पांच रुपया का ग्रीटिंग कार्ड भी तीस का बिकता है बाज़ार में. आठ
सौ का तो साड़ी बेचे हैं पिछला हफ्ता. जबकि आधा पैसा एजेंट खा जाता है. सोचो सीधा
बेच सकते तो?” उनकी आखों में सैकड़ों जुगनु चमकने लगे.
“अच्छा भाभी, अगला
हफ्ता नहीं आएंगे हम, प्रदर्शनी के लिए पटना जाना है”, सामान समेट कर उन्होंने अपने अस्तित्व से बेखबर गृहस्वामिनी को
आवाज़ दी मुझपर खूब सारी हंसी उड़ेल कर चली गईं.
उसके
साल भर बाद अपना शहर मुझसे छूट गया था.
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