Wednesday, May 31, 2017

क्योंकि हमारी शर्म मिस्प्लेस्ड है..



कुछ महीने पहले वो तीसरी बेटी का बाप बना है. पांच साल में तीसरी जगची, लिहाज़ा पत्नी को खून, पानी सब चढ़ाना पड़ा. कई रोज़ अस्पताल में रही. लेकिन तीसरे महीने से मंदिर और बाबाओं को दर्शन फिर से शुरु दिए गए हैं. अगली बार बेटा ही हो इसके लिए ज़रूरी है कि किसी भी वजह से मन्नतों और प्रसादों में कोई कमी ना रह जाए. सो ऐसे बाबाओं को ढूंढा जाना जारी है जिनका आर्शीवाद कभी खाली नहीं जाता.
इस बारे में हमारी कई बार बात होती है. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे तमाम जुमले उसके ऊपर से तेल पर पानी की तरह फिसल जाते हैं.


लड़का तो होना ज़रूरी ही है, गांव वाले नहीं मानते इसके बिना, और बेटी को बचाने का क्या है जी, मुझे तो इस बार भी पता था कि लड़की है, बता दिया था डॉक्टर ने, फिर भी हमने खत्म तो नहीं किया ना. स्कूल भी भेजेंगे ही. लेकिन बेटा तो फिर भी चाहिए ही,” वो कई बार ये बात साफ कर चुका है

सच ही तो है, इस पैदा होने वाली की स्थिति उन लाखों लड़कियों से तो अच्छी ही है जिन्हें गर्भ के बाहर आकर सांस लेने का मौका ही नहीं मिला. अब जिस समाज में मरण तक रहना है वहां के फर्माबर्दारों को किसी बात पर उंगली उठाने का मौका कैसे दिया जा सकता है? लेकिन बात बस इतनी सी ही नहीं.

ये वही गांव वाले हैं जो केवल निगम पार्षद का चुनाव जीत उन पैसों से करोड़ों की ज़ायदाद खड़ा कर लेने वाले पर उंगली नहीं उठाते. भले ही उसके एवज़ में उनकी गलियों के गड्ढे पूरी गाड़ी डकार जाने लायक बड़े हो जाएं. बलात्कार के आरोप में अंदर गए और रसूख के इस्तेमाल से तीसरे ही दिन बाहर आए गुंडे भी चौपाल पर बैठ जाम टकरा सकते हैं, उन्हें गांव वालों के टोके जाने या नहीं जीने दिए जाने की कोई परवाह नहीं है. यही गांव वाले उन्हें कुछ भी, कभी भी नहीं कहेंगे. बल्कि डरकर उनके सामने से हट जाएंगे. अपने छोटे-बड़े कामों के लिए उनकी जूती पर नाक भी रगड़ लेंगे, लेकिन इस गांव में केवल बेटियां पैदा करने वाले बाप का सर शर्मिंदगी से कभी उपर नहीं उठ सकता.

ये हैं हम और ये है हमारा समाज जो उस एक गांव जैसी लाखों इकाइयों से बना है. ये बातें हमारी कंडीशनिंग के चलते इस कदर हमारे भीतर समा चुकी हैं कि हमें इसमें कभी भी कोई ग़लती दिखाई नहीं देती. इतने सारे क़ानून बनने के बाद हमारा समाज बहुत बदल गया है. हमें अब बेटियां भली लगने लगी हैं, लेकिन बस दूसरों के घरों में. पिट कर घर वापस आए बेटों का बदला लेने के लिए हम डंडे उठाकर बाहर निकल पड़ते हैं, लेकिन शारीरिक प्रताड़ना झेलकर वापस आई बेटियां हमें शर्मिंदगी से घर के अंदर बंद हो जाने को मजबूर कर देती हैं.  समाज बस कानून से नहीं चलता, चलता है अपने चलन है, कानून बनने के बाद भी जिसे बदलने में पीढ़ियां खप जाती हैं. क़ानून को तो अपना फैसला सुनाने में सालों लग जाते हैं लेकिन समाज का न्याय त्वरित होता है. मुश्किल ये कि समाज का न्याय उतना ही दोगला भी होता है. रामपुर के शोहदे जेल के अंदर हैं, कल छूट भी जाएंगे, क्या समाज उनके परिवारों को शर्मिंदा होने पर मजबूर करेगानहीं, समाज शर्मींदगी के छींटे उन दो लड़कियों पर उछाल उन्हें हमेशा के लिए पर्दे में बंद कर देगा. 

नैन्सी के क़ातिल पकड़े जाने पर अपनी गर्दन बचाने के लिए सालों वकीलों की जेब गर्म करते रहेंगे. लेकिन क्या वो अपने समाज से भी बहिष्कृत किए जाएंगे?
और बिजनौर में चलती ट्रेन में बलात्कार करने वाले वहशी का क्या? अगली हेडलाइन तय होने तक ये सब के सब सीना चौड़ा करके फिर भीड़ का हिस्सा बन जाएंगे.
क्योंकि हम खुद ऐसी भीड़ है जो ऐसी किसी घटना होने पर सड़क पर उतरने के बजाए अपनी बेटियों को देखो हम ना कहते थे, ज़माना बहुत खराब है, तुम्हारा चारदीवारी में रहना ही ठीकवाले अंदाज़ में दरवाज़े के पीछे घसीटकर कुंडी चढ़ा लेते हैं.

रास्ते के पत्थर को लात मारना और व्यवस्था को गाली देना, किए जा सकने लायक दो सबसे आसान काम है, जिसके लिए किसी भी तरह की योजना या योग्यता की ज़रूरत नहीं होती. अपनी ऊर्जा बर्बाद करने के ये सबसे सस्ते सुलभ साधन भी होते हैं. मुश्किल होता है तो अपने गिरेबान में झांक पाना. जो करने की फिलहाल हमारी हैसियत नहीं. आसमान की ओर मुंह कर थूक फेंकना हमारी नियति हैं, इसलिए हमारी बेटियां लोहे की ज़ंजीर में बंधे रहने को मजबूर. 

No comments:

Post a Comment