Saturday, May 21, 2016

बेटे सबकुछ तो नहीं कहते...




पहाड़ों में बच्चों के स्कूल की लर्निंग ट्रिप। जाना भी अनिवार्य। पहली बार बिना मां-बाप के, घर से चार दिन के लिए दूर रहना होगा। तुर्रा ये कि इन चार दिनों के दौरान उनसे फोन पर बात भी नहीं कर सकते, बस स्कूल के मैसेज और वेबसाइट पर उनके अपडेट का इंतज़ार करना होगा। जिस दिन से स्कूल का नोटिस आया और वापसी में सहमति की चिट्ठी के साथ चेक भेजा गया, मां की चिंताओं और बच्चों के उत्साह में जैसे चरम पर पहुंचने की होड़ लगी रही।
मां को खुश रखने के लिए बिटिया आश्वासन की प्रतिमूर्ति बनी हुई है।
मैं अच्छे से रहूंगी ममा, टीम के साथ ही रहूंगी, भाई का भी पूरा ख्याल रखूंगी, वो चिढ़ाएगा तो भी नहीं लड़ूंगी उससे।
लेकिन जिस ओर से आशंका ज़्यादा है वहां से आश्वासन का एक शब्द नहीं। बेटा एक ही सवाल के जवाब बदल-बदल कर देता है,
प्रॉमिस करो संभल कर रहोगे, बहन का ख्याल रखोगे।
बिल्कुल नहीं, मैं तो उसे खूब परेशान करूंगा।
ख्याल? मैं तो मैम से कहकर दूसरे ग्रुप में चला जाऊंगा।

मैं क्यों ख्याल रखूं उसका, मैं तो छोटा हूं, एक मिनट बड़ी तो वो है।
निकलते वक्त मां को भी बिटिया की हिदायतें संभालनी होती हैं, “ममा आप प्लीज़ रोइएगा मत जैसे नानी के जाने पर रोती हैं, आप अपना भी ख्याल रखिएगा, ये नहीं कि हम नहीं हैं तो आपने लंच ही नहीं किया, हम जल्दी आ जाएंगे, ओके।
गले लगते हुए बेटे ने बस एक वाक्य कहा, स्टडी टेबल पर मेरी बुक खुली है, उसे प्लीज़ बंद मत करिएगा, फोर डेज़ में मैं पेज नंबर भूल जाउंगा।

मां के लिए चार दिन, बस चार दिन भी तो नहीं होते। पहली सुबह बस में बिठाने से लेकर चौथी रात बस से उतारने के बीच में 91 घंटे होते हैं। इस दौरान बेहद धीरे सरकने वाली मिनट की सुई को घड़ी की परिधि पूरे 91 बार नापनी होती है। घड़ी से ऊब गई तो निगाहें कैंप वालों की भेजी आईटीनरी को पचासवीं बार टटोलती हैं, अभी ट्रेकिंग के लिए गए होंगे, अभी वॉटर फॉल तक, खाना तो मिल गया होगा ना अब तक, वहां रात को ठंढ होगी, कहीं मस्ती में जैकेट पहनना ना भूल गए हों। बीच-बीच में व्हाट्स एप ग्रुप पर बाकी माओं के बदहवास संदेशों का आना जारी है, आज सुबह से स्कूल की तरफ से कोई अपडेट नहीं, मेल नहीं आया, कल जो तस्वीरें आईं थीं उसमें मेरे बच्चे के एक भी नहीं हैं, दिस इज़ नॉट डन, वगैरा, वगैरा। 

चौथे दिन के आखिरी घंटे स्कूल का कैंपस अभिभावकों की बेचैन चहलकदमी से गूंज गया है। गेट में बसों के घुसते ही उत्साह में किलकते मां-बाप ही बच्चे बन गए।
कार में बैठते ही धाराप्रवाह कहानियों के बीच बिटिया ने सूचना दी कि भाई ने सचमुच उसका बहुत ख्याल रखा, यू वोंट बिलीव बट ही वाज़ सच अ गुड ब्वाय ममा, यू नो, मैं एक दिन अपसेट थी तो इसने पहले मुझे चुप कराया, फिर मैम को ढूंढ कर उनसे मेरी बात भी कराई। टीम ईवेंट में भी सबसे आगे रहता था, और तो और मिमिक्री कर करके सबको खूब हंसाता भी था।
घर घुसते ही कहानियों का सैलाब एक बार फिर चारों ओर उमड़ रहा था, बिटिया जंगल से तोड़े बेर और आड़ू तक बचा लाई थी ममा-पापा के लिए। उनकी ओर की कहानियां खत्म हुईं तो बिटिया को हमारी कहानियां सुननी थीं, आपने क्या किया इन दिनों में, क्या खाया, कहां गए। लेकिन अपने हिस्से की कहानियां निबटा बेटा अपने बिस्तर पर सिमट चुका था, हाथ में चार दिन पहले आधी छोड़ी किताब के साथ।
मां फिर बेचैन।
आपने एन्जॉय तो किया ना
हां ममा खूब सारा, उसकी नज़रें लेकिन किताब पर ही जमीं रहीं।
आपको पता है मैंने आपको बहुत मिस किया
”........”
लेकिन आपने तो लगता है ममा से ज़्यादा अपनी बुक को मिस किया।
चेहरे से किताब हटाकर बेटे ने एक ठहरी नज़र से मां को देखा, आप भी ना ममा, अगर मैं आपको इतना सारा मिस नहीं करता तो आपसे किया प्रॉमिस इतने अच्छे से कैसे पूरा कर पाता।“

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