Saturday, November 21, 2015

बुद्धु बक्से (इडियट बॉक्स) और हम


घर में बच्चों के दोस्तों का गेट-टुगेदर था। उनके कमरे में जूस, सैंडविच और कुकीज़ पहुंचाने के क्रम में बातचीत के कुछ शब्द कानों तक तैरते चले आए।
मेरे घर में पांच टीवी और आठ एसी हैं, संयुक्त परिवार में रहने वाली सहेली ने कहा।
मेरे घर में चार एसी और दो टीवी, दूसरी ने कहा।
हमारे घर में दो टीवी क्यों नहीं हो सकते, उम्मीद के मुताबिक उनके जाते ही बिटिया का पहला सवाल था।
इसलिए ताकि टीवी देखने के बहाने हम साथ में समय बिता सकें, रिमेंबर टीवी इज़ ए फैमिली थिंग, मैंने पिछली कई बार की तरह उसे जवाब दिया।
तीन बेडरूम वाले घरों की जिस सोसायटी में मैं रहती हूं वहां शायद ही कोई ऐसा फ्लैट है जहां दो या ज्यादा टेलीविज़न ना हों। इसलिए ऐसे सवाल घर में उठते रहने लाज़मी हैं, वो भी ऐसे परिवेश में जहां टीवी और गाड़ियों का आकार और ब्रांड आपकी हैसियत के यूनिडाईमेंशनल इंडीकेटर हों। कुछ साल पहले जब घर का टीवी अपग्रेड हुआ तो बच्चों की उम्मीद जगी कि पुराना टीवी उनके कमरे में लगेगा, जैसा उनके तमाम दोस्तों के कमरों में है। उनके पिता ने लेकिन पुराने टीवी को कबाड़ के भाव निकालना ज्यादा पसंद किया। बेडरूम में टीवी ना लगाना हमारा एक और फैसला है, जिसकी वजह से हमारा ड्राईंग रुम ज्यादातर प्लेटफॉर्म की शक्ल अख्तियार किए रहता है।
तमाम दूसरे रिश्तों की तरह टीवी से हमारा रिश्ता भी हमारे बच्चों से बिल्कुल अलग है। अपने समाज में हम टीवी के साथ बड़े हुए पहली पीढ़ी के हैं। उस समय के जब टीवी हमारी पूरी दुनिया नहीं बना था, मनोरंजन का विकल्प भर था। उन दिनों जब छोटे-छोटे शहरों में झुंड के झुंड फैले मध्यमवर्गीय परिवारों में टीवी को वो हैसियत मिली थी जो आजकल एस-क्लास मर्सीडीज़ को मिली है, शाम के झुटपुटे में पापा को रिक्शे पर एक बड़ा सा डब्बा पकड़ आते हुए देखना मेरे बचपन के सबसे रोमांचक दिनों में दर्ज है। 1984 के सितम्बर-अक्टूबर में वो दादाजी का ख़रीदा हुआ पहला 20 इंच कलर सोनोडाईन टीवी था। बड़े होने पर पता चला कि उस टीवी को घर लाने के लिए बुकिंग के बाद छह महीने का इंतज़ार करना पड़ा था और उसे खरीदने के लिए पापा मधुबनी से मुज़फ्फरपुर गए थे।
अपनी सीमित आय में दादाजी ने टीवी ख़रीदने के लिए बचत कैसे की होगी ये तो पता नहीं लेकिन टीवी के घर आने के बाद उनके घर खर्च के खाते में ज़रूर भूचाल आया होगा। पूरी कॉलोनी में वो पहला कलर टीवी (और शायद पहला टीवी भी) था, सो हफ्तों लोगों का उसे देखने आना जारी रहा। टीवी की मुंह-दिखाई लेकिन उन दिनों की बहुओ जैसी ही होती रही, चुपचाप आंखे बंद किए, क्योंकि जब देर शाम के कार्यक्रमों का वक्त होता तो बिजली नहीं होती और बिजली आती तो कार्यक्रमों का वक्त नहीं होता। सो जनता चाय की चुस्कियों के साथ टीवी की बुकिंग से लेकर खरीदे जाने तक का पूरा वृतांत सुनती, हाथ से बदले जाने वाले चैनलों के आठ बटनों और स्क्रीन पर हाथ फिराती, बिजली हुई तो टीवी ऑन कर झर-झर की आवाज़ सुनती और लौट जाती।
महीने के आखिर में इंदिरा गांधी की हत्या और अंतिम संस्कार के प्रसारणों ने सही मायनों में टीवी की बोहनी कराई। ठसाठस भरे कमरे में मां और दादीमां के साथ कालोनी की दूसरी औरतें आंचल से आंखें पोंछती दिन भर टीवी पर नज़रें जमाए रखतीं। बरामदे से झांकते मर्द राजनीतिक चर्चाएं करते।

रामायण के समय तक दादाजी रिटायर होकर दरभंगा वाले घर में शिफ्ट हो चुके थे। ड्राईंग रुम पहले से निर्धारित कोने वाले कमरे से बीच वाले कमरे में शिफ्ट किया गया, ताकि टीवी बरामदे के साथ-साथ कैंपस तक से नज़र आए। रविवार की सुबह घर को रामायण के लिए तैयार करना हम बच्चों की ड्यूटी थी। पड़ोस की औरतें अंदर ड्राईंग रूम में मम्मी और दादीमां के साथ बैठतीं, बरामदे पर थिएटर के अंदाज़ में लगे डायनिंग चेयर पुरुषों के लिए रिज़र्व होते। इतनी तैयारियों के बावजूद कई लोग बरामदे के ग्रिल के बाहर लटके होते, और आती-जाती सवारियों के क़दम बाउन्ड्री वॉल के बाहर रुक जाते। औरतों का झुंड शाम को सिनेमा के लिए फिर जुटता, जिसे दादाजी के दोस्तों की टोली अवॉइड करती। जब किराए पर वीसीआर लाने का प्रोग्राम होता तो हफ्ते भर पहले मुहल्ले को बता दिया जाता।
उन दिनों घरों की छत पर लगे, दूर से नज़र आने वाले एंटेना समृद्धि के पहले दस्तावेज़ हुआ करते थे। रामायण और महाभारत के साथ सस्ते टीवी सेट और साथ में इन्वर्टर, बैट्री की उपलब्धता ने जब घरों में टीवी की उपस्थिति अनिवार्य सी कर दी तो मुहल्लों में इस तरह का मिलना-जुलना बेहद कम हो गया। कई घरों में टीवी इस आन पर खरीदे गए क्योंकि किसी अदद रविवार, टीवी वाले घर के अंकल ने उनके बच्चों को टीवी देखने देने से मना कर दिया था।
मुहल्ले वाले पीछे छूट गए तो भी परिवार के लिए एक टीवी के सामने जुटना भी आयोजन जैसा ही था। किसी मज़ेदार कार्यक्रम के बीच जब बिजली चली जाती तो हम बच्चे रोने-रोने से हो जाते। तब दादाजी ऐलान करते, चलो 101 पुरों के नाम गिनो तो लाईट आ जाएगी।
हम सब मिलकर फिर अपना पुर कोश खंगालने लग जाते। समस्तीपुर, जमशेदपुर, मुज़फ्फरपुर, सिंगापुर, क्वालालंपुर करते-करते अक्सर भूल भी जाया करते कि ये सारा खेल शुरु क्यों हुआ था।
लिहाज़ा, टीवी का मतलब उन दिनों कंटेट के परे भी बहुत कुछ था। जब सारे कार्यक्रम एक चैनल पर आया करते तो चैनलों के आठ बटन भी फालतू लगते। रविवार की 'रंगोली' से लेकर 'फिर वही तलाश', 'नींव' और 'इन्द्रधनुष' हम सब साथ देखा करते। गुरुवार को होनी-अनहोनी आती तो डर से मैं शाम सात बजे ही सोने चली जाती। सुबह और दोपहर के प्रसारण शुरु हुए तो कई कार्यक्रमों को ना देखने का फैसला किया गया, ताकि बच्चों की पढ़ाई पर असर ना पड़े। फिर भी 8:40 के सामाचार के लिए हमें 8:35 तक शांति से टीवी के सामने बैठ जाना पड़ता था।
विकल्पों की भरमार के साथ ना देखने लायक कार्यक्रमों की लिस्ट ज्यादा लंबी हो गई है। टीवी एक होते हुए भी आज कार्यक्रम बंटे हुए हैं। बेटे को बार्बी मूवी नहीं देखनी तो बिटिया को क्रिकेट, समय की बर्बादी लगता है। सास और सौतन के अलावा डायनों और चुड़ैलों तक से लड़ाई लड़ रही बहुओं और न्यूज़ चैनलों समेत ज्यादातर चैनल और कार्यक्रम तो ऐसे हैं जिनसे हम खुद ही अपने बच्चों को दूर रखना चाहते हैं। फिर भी एक टीवी के ज़रिए परिवार को बांध कर रखने की मेरी ज़िद अपनी जगह क़ायम है।  
कई सालों से मीडिया का अर्थशास्त्र पढ़ और पढ़ा रही हूं। जानती हूं, टेलीविज़न कंटेंट के पैरवीकारों को घरों में लिए गए इस तरह के फैसले कतई नहीं सुहाएंगे। ये भी जानती हूं कि यू-ट्यूब और गो सोलो का नारा देने वाले हॉट स्टार जैसे तमाम वीडियो ऐप्स के ज़माने में तेज़ी से बड़े हो रहे बच्चों के लिए ज्यादा दिनों तक टीवी स्क्रीन की प्रासंगिकता भी बनी नहीं रहेगी।  
लेकिन तब तक मैं अपने स्टडी टेबल तक आ रही बच्चों की उनके दादा-दादी से हो रही बातचीत का आनंद उठा रही हूं, दादीमां आपके 'स्वरागिनी' के बाद पहले हम टीन टाईटन्स देखेंगे, बाबा का न्यूज़ हमारे स्टडी टाइम पर चलेगा। फिर डिनर के बाद 'सम्राट अशोक' हम सब मिलकर देखेंगे, ओके? प्रॉमिस?“



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