Tuesday, January 31, 2017

इस सफर की कथा नहीं



सोचकर तो यही निकली थी कि इस सफर की भी एक कथा होगी,  आखिर इससे अच्छा कॉकटेल क्या होता सफरकथा के लिए जहां किले हैं, प्राचीर हैं, विरासत है, इतिहास है, रंग है और रंग बिरंगे टूरिस्ट भी. जहां टिकट खिड़की पर हर जगह कतार इतनी लंबी कि दमकते, चहकते, इतराते, तौलते चेहरों को देखने में ही दृष्टि की कई रीलें चुक जाएं.

इतिहास की गलियों के बीच से इंसान कितना एकांगी होकर गुज़रता है. कानों में मशीन लगी है और आंखों के सामने तख्ती पर खुदे हैं चंद अंक. स्वचालित मशीन में वो अंक दबाते ही इतिहास आपको अंदर झांक लेने की सीमित अनुमति देता है. सिर्फ उतना सुनने समझने की अनुमति, जितना आपके वर्तमान की हैसियत है. और वर्तमान की हैसियत केवल स्थूल को समझ पाने की होती है. पलंगों की नक्काशी, छतों के झूमर, कांच के बक्सों में क़ैद कलाकृतियों बीच से निरपेक्ष होकर गुज़र जाने की भी अपनी एक यंत्रणा होती है. इतिहास बड़ा निष्ठुर होता है, जितने झरोखे खोलता है उससे कहीं ज़्यादा दरवाज़े बंद किए देता है. कमरे, दरवाज़े, चौक, चौराहे सबका एक नाम है, सबकी एक कहानी है जो जाने कितनी हकीकतों को कुचलकर वर्तमान को नसीब हुई है. कहानी चाहे जैसी दिलचस्प हो चालीस कदम के बाद याद से उतर जाते हैं. कान की मशीन चीख रही है, वो उस ओर चीनी तोप है, उसे टटोलकर देखे बिना संपूर्ण नहीं होगी आपकी ये यात्रा. मैं आसमान की ओर मुंह करके केवल पक्षियों का कलरव सुनना चाहती हूं. दीवारों पर तोपों के निशान हैं और हर निशान के पीछे एक वीभत्स युद्ध की गाथा. यहीं राष्ट्रभक्त शहीदों के गौरवगान का भी वक्त होता है, जिन्होंने राष्ट्र और कुल की शान के लिए पीछे मुड़कर नहीं देखा, अपनी जान न्यौछावर कर दी.

सत्ता के लिए निजी अहम को राष्ट्रभक्ति में बदल लेना क्या हमेशा ही इतना सहज होता होगा?

मुझे वास्तु की समझ नहीं मैं किले की सबसे उपेक्षित दीवार को टटोलकर उसके पीछे दुबकी किसी हकीकत को आश्वस्ति के साथ निकाल लेना चाहती हूं. लेकिन घटनाएं मृत हैं अब, इतिहास के शोर में उनकी ओर कोई नहीं नज़र नहीं उठाता. इतिहास निष्ठुर होता है, वो गवाही नहीं देता, सच छुपाता है. इतिहास की हर पंक्ति के पीछे जाने कितनी कोमल कहानियां कुचल दी जाती हैं. उस एक पल में मैं दम तोड़ती उन कहानियों को सहेज लेना चाहती हूं. लेकिन उन कहानियों पर कोई विश्वास नहीं करेगा.


द्वार पर पूजा की माला और सिंदूर के अंलकृत हैं कुछ हथेलियां. कान में लगी मशीन चीखती है, ये किले की सती माताओं की हथेलियों की छाप है. पैर वहीं ठिठक जाते हैं, कान आगे सुनने से इंकार कर देते हैं. कुछ हथेलियां इतनी छोटी हैं कि आप उन्हें परे कर उनके पीछे छुपे मासूम चेहरों की अनगढ़ हंसी सुन लेना चाहते हैं. चेहरों की लालिमा, हृदय की जिजीविषा के स्पंदन को महसूस कर पाना इस शोर में संभव नहीं, आप बस धिक्कार से अपना मुंह घुमा ले सकते हैं.

बड़े भाग्यशाली होते हैं वो लोग जिनके पैरों के निशां वक्त की हवाएं मिटा ले गईं, वो लोग भी जिन्हें इतिहास की किताबों में शब्द भर की ज़मीं भी मुकम्मल नहीं हुई, वर्तमान और भविष्य उनको कभी अपने स्वार्थ के लिए तोड़ मरोड़ नहीं पाएगा.

यात्रा में कई महलों में घूमना हुआ जिनके एक हिस्से में होटल और दूसरे में संग्रहालय बनाए गए हैं. प्रीविपर्स खत्म होने के बाद राजपरिवारों ने अपने घर के ज़ेवर-कपड़ों के साथ बर्तन तक सजा कर उनपर टिकट लगा दिए है.

जैसलमेर के किले के अंदर पूरे का पूरा शहर बसा है, राजपरिवार की सेवा में लगे राजपूत और ब्राह्मण परिवारों को वहां रहने की अनुमति मिली थी, उनकी पीढ़ियों के सैकड़ों परिवार अब भी यहां है और किले के भीतर पर्यटन से जुड़ा कोई ना कोई व्यापार कर रहे हैं. अंदर गाड़ियों की आवाजाही बंद है लेकिन दो पहिया वाहन धड़ल्ले से अपना रास्ता बना रहे हैं.

नगरसेठ का घर पटुओ की हवेलीके नाम से ख्यात है. वहां राजमहल से भी ज़्यादा रंग है, ज्यादा अंलकरण, ज़्यादा ऐश्वर्य और वैभव. पटुआ सेठ के पास धन इतना ही था कि महारावल भी इनसे कर्ज लिया करते थे, वो ऐश्वर्य हर कोने में नज़र आ रहा है. लेकिन गाइड ने बताया दरअसल ज़्यादातर रंग-रोगन पटुआ सेठ के बाद की आमद हैं. हवेली को खरीद कर पर्यटन के लिए खोलने वाले श्रीमान कोठारी ने नए ज़माने के सैलानियों की पसंद को ध्यान में रखते हुए हवेली को नए तरीके से सजाया है.

तथ्यों के साथ छेड़खानी करने में बाज़ार इतिहास से पीछे थोड़े ही है. इतिहास से बच भी जाए कोई, बाज़ार से कैसे बचाए खुद को?



Friday, January 27, 2017

हसरतें



पूरे घर में कोलाहल था. घर की नई आमद के चारों ओर पूरा परिवार इकठ्ठा था. शीशम की फिनिश और वेलवेट के गद्दों वाले आठ कुर्सियों के डायनिंग टेबल ने इतने बड़े हॉल को भी सिकोड़ कर छोटा सा बना दिया था. बीचों बीच कांच के गुलदस्ते में कार्नेशन की डंडियां सजाईं गईं. चारों ओर नए टेबल मैट बिछाए गए. बड़ी बहू ने चौंसठ पीस वाला डिनर सेट निकाला, नई बहू शादी में मिली चमचमाती कटलरी का डब्बा खोल लाईं. सारी सरगर्मी के बीच हस्बे मामूल मां रसोई में घुसी थीं. नए डायनिंग टेबल का उद्घाटन भी तो सलीके से होना था. बच्चे भी ना, बिना किसी प्लानिंग के काम करते है. लंच के वक्त तो चर्चा ही शुरू हुई और शाम तक इतना महंगा टेबल घर पहुंच भी गया. जल्दी-जल्दी में किसी तरह मूंग दाल का हलवा बन पाया. पनीर के पकौड़ों का घोल तैयार करती मां डिनर का मेन्यू सोच ही रही थीं कि बहुएं हाथ पकड़कर उन्हें बाहर खींच लाईं.

नाश्ते लिए लिए कचौड़ी और जलेबी बाज़ार से आ चुकी हैं. डिनर मोती महल से आएगा, आप बस पापा की बगल की कुर्सी पर बैठकर डायनिंग टेबल का उद्घाटन करिए.

मां एक सेकेंड को सकपका गईं, मुझे परोस लेने दो, तुम सब साथ में यहां बैठकर गर्मागर्म हलवा खाओ इसमें मुझे सबसे ज़्यादा खुशी मिलेगी.

ना-ना, अब हम कुछ नहीं सुनेंगे, हम सब साथ ही खाएंगे बस. मर्दों, औरतों को अलग-अलग ही खाना था तो इतनी सारी कुर्सियों का काम ही क्या?” नई बहू की मनुहार थी.

और आज से आपका किचन में घुसे रहना भी बंद. हमने बात कर ली है, कल से कुक आया करेगी, आप बस उसे बस मेन्यू समझा दिया करें, बाकी का सारा काम उसका. हमारे पास तो वैसे भी समय नहीं होता, आपको भी लगे रहने की कोई ज़रूरत नहीं. साल भर में ही बड़ी बहू की आवाज़ में अधिकार आ गया था.

हां मां, जब देखो तुम हमेशा सबको खिलाने में लगी रहती हो, अब से ये सब बंद, साथ खाएंगे, साथ गाएंगे. छोटा अभी तक गर्दन पकड़कर लाड़ लगा लेता था.

मां ने निरस्त्र होकर पिता को देखा, उनकी आंखों में भी मुस्कान थी. वो हथियार डाल कर उनके बगल में बैठ गईं. बेसन का घोल किचन में इंतज़ार करता रह गया. बहु ने ससुर से साथ सास की भी प्लेट लगा दी. उनकी आंखें डबडबा गईं.

खाने की मेज़ पर भी चर्चा मां से शुरू होकर उसकी बहुओं और स्त्री विमर्श तक पहुंच गईं. बेटों की आवाज़ में मनुहार थी. घर में बस लड़के हों तो ये बारीक बातें छूट ही जाया करती हैं. मां को ऐसे ही देखते रहने की सबको आदत जो हो गई थी बचपन से. दो कमरों के किराए के घर में फोल्डिंग डायनिंग टेबल के इर्द-गिर्द प्लास्टिक की कुर्सियों पर डटे चारों बाप बेटों ने उंगलियां चाट-चाटकर खाने और कभी-कभार भावातिरेक में मां के आंचल से हाथ पोंछ लेने के अलावा कुछ भी नहीं किया था. सबको खिलाने के बाद मां ने क्या खाया, कब खाया किसी को कभी सुध नहीं रही. वो तो घर में नौकरीपेशा बहुएं आईं तों नज़र आया सबको.

अब बस बहुत हो गया मां, अब तुम्हें किसी के लिए खटने की ज़रूरत नहीं, अब किस बात की कमी है घर में. सारे बेटे कमाते हैं तुम्हारे, आज से तुम अपनी ज़िंदगी जिओगी. सारा वक्त तुम्हारा, जो मन में आए करो. अपने अधूरे शौक पूरे करो, अपने हिसाब से जिओ. जी भर के शॉपिंग करो, सहेलियों से मिलो.

यस मॉम, वैसे भी अब घर में विमेन मेजॉरिटी होती जा रही है, ज़माना भी विमेन्स लिब का है, जो हसरत हो आपकी पूरी कर लीजिए,” छोटा मार्केटिंग में है, हर वक्त रौ में रहता है.

विमेंस लिब की गर्मा-गर्म चर्चा लिविंग रूम तक चली आई थी. आत्ममुग्धता के इस शोर-शराबे में सबसे कम ध्यान मां के चेहरे पर ही दिया जा रहा था. इधर उनकी आखें, यादों की कई-कई परतों के पीछे धुंधली हो रही थीं. रसोई मां की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही थी. हल्की मुस्कुराहटों के बीच धीमे से गुनगुनाती मां के लिए कितने भी लोगों का, कितना भी लंबा-चौड़ा मेन्यू असाध्य नहीं था. न्यौते निभाने और ज़रूरी खरीदारी के अलावा उन्हें घर से बाहर निकलने का ना कभी वक्त रहा ना चाव. नाश्ते, खाने से छुट्टी मिलती तो अचार, मुरब्बे, बड़ियों में लग जातीं. जैम और सॉस भी कभी बाज़ार से नहीं आए. मैगज़ीनों से दावत विशेषांक की कतरनें पाक शैली के मुताबिक करीने से रसोई में रखी रहतीं. बाद में कुकरी शो देखकर नोट्स बनाए जाने लगे, आजकल तो मां मोबाइल से ही रेसिपी पढ़ लेतीं हैं. बच्चों के बदलते टेस्ट के मुताबिक मां की पाककला भी कलेवर बदलती रही. चायनीज़, मुगलई कुछ नहीं छूटा.

इस खाने की बदौलत मां ने जाने कितने रिश्ते बनाए थे. शहर बदले, घर बदले, किसी भी नई जगह पहुंचते ही मां की खीर, दही बड़े और कढ़ी पकौड़ों की कटोरियां पड़ोस के बंद दरवाज़ों के पीछे पहचान की दरकार लिए पहुंचती और दिनों में भाभी, चाची, बहु जैसे असंख्य रिश्ते बटोर लाते. उनकी शामें रेसिपी सीखने को घर आई सहेलियों से गुलज़ार रहतीं. बच्चों के दोस्त उनकी अनुपस्थिति में भी फर्माइशों की लिस्ट लिए बेखटके कॉल बेल बजाते और तृप्त होकर वापस जाते. दोस्तों के बीच मां की भक्ति इतनी ही रही कि बच्चे कहीं भी रहें हों, उनके दोस्त फोन की एक घंटी पर हमेशा मां के लिए हाज़िर रहे. मां ने बाहर की दुनिया भले ना देखी हो, अंदर का संसार उनका अपना था, एक-एक बूंद सिरजा हुआ.

जब संयुक्त परिवार में ब्याह कर आईं तो इसी हुनर ने मां को चार बहुओं वाले खानदान में सहजता से जगह बना लेने दिया. बच्चों की दादी कहा करतीं, उनके समान ना कोई पंचमेल सब्ज़ी बना सकता था ना कढ़ी-पकौड़े. आखिरी वक्त पर जब दादी कुछ नहीं खा पातीं, मां उनसे पूछ-पूछ कर पसंद की चीजें बनातीं, मिन्नतें करके उन्हें खिलातीं. जभी तो जाते-जाते दादी अपनी आखिरी निशानी, ढाई तोले वाले कान्हा जी का पेडेंट, चेन समेत मां के गले में डाल गईं. 

जाने कितनी कहानियां थीं जो एक-एक कर मां को इस समय याद आ रही थीं.

बताओ ना मां, क्या प्लान है तुम्हारा?” घूम फिरकर काफी समय बाद मुद्दा आखिरकार मां तक पहुंचा.

बहुत जोर पड़ा तो मां ने हलक साफ किया, शुरू से हमें छोटे-बड़े खर्चों के लिए तुम्हारे पापा के सामने हाथ फैलाने में बड़ी झिझक होती रही. जब घर में पैसों की ज़रूरत थी उस ज़माने में चलन ही नहीं था, खराब मानते थे. लेकिन अब तो बड़ा कॉमन है ये सब. इन बच्चियों का कॉन्फिडेंस देखती हूं तो बड़ा दिल करता है, मैं भी घर में अपनी कमाई ला पाती, अपने पैसे तुम्हारे पापा के हाथ में रख पाती, तुम सब के लिए कुछ खरीद पाती, बस यही एक हसरत बाकी रही. और तो कभी कुछ सीखा नहीं मैंने, रसोई में ही मेरी ज़िंदगी है. चौक के दूसरी ओर कॉलेज के बच्चों के लिए इतने सारे कोचिंग सेंटर है खुले हैं, दफ्तरों में कुंआरे लड़के-लड़की काम करते हैं, पीजी में रहते हैं, छोटे का दोस्त तो उस दिन कह भी रहा था, दो टाइम के खाने का एक बंदा तीन-चार हज़ार तो आराम से देता है. हाथों के हुनर से परिवार से दूर रह रहे तुम्हारी उम्र के बच्चों के चेहरे पर तृप्ति ला सकूं बस यही मन है. बात केवल पैसे की नहीं हमारे आत्मविश्वास और चाहत की है. अब तो तुम लोगों ने कुक भी देख ली है, उसके साथ लगकर कर बीस-पच्चीस टिफिन तो तैयार कर ही लूंगी आराम से.

अगले ही पल कमरे में सूई टपक सन्नाटा था. बड़े बेटे ने बाएं पैर को दाएं के उपर से हटाकर बगल में कर लिया और सीधा होकर बैठ रहा. मंझले ने गले का बटन खोलकर ज़ोर की सांस ली. छोटा अबतक बेफिक्र सा सोफे के हत्थे पर बैठा था, उतर कर भाई के बगल में आ गया. पिता ज़ोर से खखार कर गला साफ किया. 

ये क्या उलटबांसी हुई, पति और तीन कमाऊ बेटों के रहते मां डब्बे वाली बनेगी? लोग क्या कहेंगे? कहां तो काबिल बेटों ने मां को हर तरह के ऐशोआराम देने की पेशकश की थी, मां बाहर निकले, रिश्तेदारी में घूमे-फिरे, पार्टी-बाज़ार करे, कहां ये अपनी चारदीवारी से निकलना ही नहीं चाह रहीं. ये कौन सा तरीका हुआ भई आज़ादी का?

मां की हसरत भरी नज़रें एक चेहरे से दूसरे पर फिसलतीं रहीं.
 
सर्वसम्मति से मां का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया. बहुएं नज़र चुरा रही थीं, बेटे उठकर तीन दिशाओं में निकल लिए. दाएं-बाएं देखकर पिता ने भी पुराना अखबार खोल लिया. बस डायनिंग टेबल की ओर पीठ किए मां दुपट्टे के छोर से उंगलियां लपेटती रह गईं.  



Sunday, January 8, 2017

डर स्वीकारने में डर क्यों?


नए साल की पहली सर्द सुबह, धुंध रेत के टीलों तक उतरी हुई है. लेकिन आज पैरासेलिंग करने देने का वादा हर हाल में पूरा होना है. हाथ हवा में लहरा कर हमें तर्क दिए जा रहे हैं, न्यू ईयर पर तो यूं भी प्रॉमिस नहीं तोड़ा करते ना.
बिटिया आत्मविश्वास से आगे निकल गई, वैसे ही जैसे ढाई साल की उम्र में मां का हाथ छोड़ क्लास टीचर की उंगलियां पकड़े आगे चली गई थी, एक बार भी पीछे मुड़े बिना. पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत उसे बस ये जानने के लिए होती रही है कि उसके पीछे मां ठीक तो है ना.

बेटा भी तेज़ी से आगे गया लेकिन किसी ना किसी बहाने तीन बार वापस आकर मां को प्यार किया, उंगलियों में उंगलियां फंसाकर यूं ही खेलता रहा है. हर बात में पहले टर्न लेने की ज़िद को छोड़कर बहन को आगे जाने दिया है उसने.