शहर बड़ा ही दबंग था
और ये दबंगई वहां के भिखारियों में भी झलकती थी। मैं उन भिखारियों की बात कर रही
हूं जो परिचित से बन गए थे, हफ्ते दस दिन में चले आते अपने बंधे-बंधाए घरों में।
हफ्तावसूली के अंदाज़ में, पूरे अधिकार से गेट खोलकर बरामदे तक पहुंच जाते। जिस
दिन देर हुई उस दिन समय खराब करने का उलाहना भी दे देते, देने में उनकी उम्मीद पर
खरे नहीं उतरे तो उसका भी इतने उच्च स्वर में उद्घोष होता जिसे आस-पास के चार घर
सुन लें।
शायद इसलिए उसका आना
अलग से याद है अभी तक। उसके मुंह से निकली आवाज़ हम तक पहुंचने से पहले ही कहीं
टूट जा रही थी, गेट पर खड़ा बस इशारे से खाना मांग रहा था।