Sunday, December 27, 2015

ये दिन वो साल



फोन से पुरानी तस्वीरों का बोझ कुछ कम करने बैठी तो नज़रें उस आई-कार्ड के फोटो पर ठिठक गईं। कहीं घूमने जाओ तो टैक्सी या उसके ड्राइवर की फोटो खींच लेने की पुरानी आदत है पतिदेव की। उसका चेहरा और साथ गुज़ारे दो दिन एकदम से आखों के सामने घूम गए। ठीक एक बरस पहले उसी के भरोसे अब तक की सबसे दुरूह सड़क यात्रा की थी। गंगटोक होटल में जब उसे बोलेरो में हमारा सामान डालते देखा तो डर सी गई। इतना छोटा लड़का, ये ले जाएगा उन रास्तों पर जहां जा सकने के लिए खास परमिट लेनी होती है राज्य सरकार से, जिन रास्तों पर ना हर ड्राइवर जा सकता है ना हर गाड़ी।
कल ही लौटा हूं वहां से, डरो मत, लेप्चा हूं मैं, 23 साल का हूं, सीज़न में हर तीसरे दिन जाता हूं, उसने स्टीयरिंग व्हील पर बैठते हुए पूरे प्रोफेशनल रुखाई से जवाब दिया। ये लो, एक तो रास्ता दुरूह उसपर रूखे स्वभाव का सारथी, हो गया काम।

Friday, December 18, 2015

तो आज आप क्या होतीं मां?


कल पार्क में शर्मा आंटी मिली थीं।
कौन सी शर्मा आंटी?
अरे वही जो हर बात में, तुम्हारे अंकल ये, तुम्हारे अंकल वो करती रहती हैं।
हां जी वही जो सोसायटी की मीटिंगों में सबसे तेज़ बोलती हैं, हर बार नई शिकायत के साथ।
अब कहानी बिना टोके खत्म करेंगे।
हां तो शर्मा आंटी पार्क की बेंच पर बैठी एक दूसरी आंटी से बतिया रही थीं,  सामने बच्चों का बैडमिंटन गेम चल रहा था, एक तरफ दो लड़कियां सामने एक लड़के से हार रही थीं।
जज करके शॉर्ट तो खेल ही नहीं रहीं, कैसे बेमन से मार रही हैं ये।
आप भी खेलती थीं ?”, मैंने हल्के से पूछ लिया।

Saturday, December 12, 2015

द्रौपदी को चाहिए भीम?


इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की डिग्रियों, बड़े नाम वाली कंपनी में खुद का केबिन और उसके साथ की सैलरी और सुविधाओं वाली आत्मविश्वास से लबरेज वो लड़की तीस के पायदान को पार करते ही आजकल परिवार की चिंताओं का सबब बनी बैठी है। कारण जानने के लिए पहेलियां बूझने की ज़रूरत भी नहीं। एक ही वजह हो सकती है इस इक्वेशन में, उसके लिए योग्य लड़का नहीं मिल रहा।
ऐसे बेहूदा सवाल करते हैं लड़के, कुकिंग का शौक है क्या आपको? जैसे मैं कोई बीए पास लड़की होऊं, उसने हंसते हुए बताया।

Wednesday, December 9, 2015

ना आना इस देस...


वक्त आने पर सही फैसले लेने की हिम्मत ना आर्थिक स्वतंत्रता से आती है ना ही स्कूली शिक्षा से। हां परिवार और परवरिश का इसमें योगदान ज़रूर हो सकता है लेकिन सबसे ज्यादा शायद व्यक्तित्व का होता है।
पिछली सर्दियों की एक शाम बीमार कामवाली उसे लेकर घर आई।
ये ही है मेरी बहू”, सास के बोलने की देर थी कि गदबदे शरीर वाली उस सावंली सलोनी ने झट से बंगाली तरीके से मेरे पैर छुए और बर्तनों से भरे सिंक की ओर चली गई। मशीन की गति से उसके मज़बूत हाथों ने मेरे बर्तनों में जान डाल दी...वो बर्तन जो पिछले दो महीने से दो बार धोए जा रहे थे। एक बार उसकी सास धोती जो अक्सर जूठे ही रह जाते और दूसरी बार मुझे धोने पड़ते। लेकिन दिसम्बर-जनवरी के महीने में बर्तन वाली से झिक-झिक करने का जोखिम अनुभवी गृहस्थनें नहीं उठातीं।

Saturday, December 5, 2015

गुड़िया और कहानियां



चार बहनों वाले घर में ज़्यादा खिलौनों की ज़रूरत नहीं होती। हमारे समय में ज़्यादातर हैसियत भी नहीं होती थी। फिर भी, पता नहीं क्यों, पापा एक बार्बी डॉल लेकर आए थे, पचास रुपए की। छोटे कस्बों के महंगे स्कूलों की एक महीने की फीस होती थी तब इतनी। भूरे बालों और भूरे कपड़ों वाली वो बार्बी हमारे घर में लेकिन उपेक्षित सी पड़ी रही, शो रैक पर। गुड़ियों के खेल के लिए हमें बड़े परिवार की दरकार होती थी। दादा-दादी, चाचा-चाची, भैया-दीदी वाला परिवार, जो ज़रूरत पुरानी सफेद कपड़ों की हाथ से बनी गुड़िया ही पूरी कर सकती थी। इन गुड़ियों का आशियाना बनता पुराने कार्टन में, जिसमें माचिस के खाली डब्बों के सोफे होते और माचिस के डब्बों का ही टीवी भी होता। बाकी काम तरह-तरह के बर्तन सेट पूरे करते जिनकी हमारे पास भरमार थी। इलीट सी बार्बी उसमें आउट ऑफ प्लेस ही रह गई।