घर वो अपना जहां आपने अपना बचपन बिताया, जिसकी
दीवारों पर अपने बढ़ते क़द की निशानियां छोड़ीं, जिसकी चाहरदीवारी को फांद गीली
गेंद उठाई, कच्ची अमिया चुनी, जामुन चुराए, आंगन में गढ्ढे खोद अपने खज़ाने
छुपाए, मां ने नाराज़गी में कान उमेठे तो मां का नाम लेकर ही रोए, जहां सुबह भाई-बहनों के साथ
झगड़कर संपत्ति और सीमा का बंटवारा किया और शाम तक फिर सब मिला लिया। जहां आंगन में आम के पेड़ पर चढ़ उत्सुक हाथों से तोते के अंडे गिने और हाथ लग उनके गिर जाने पर
फूट-फूट कर रोए। जहां कैंपकॉट पर सूख रहे धुले गेहूं की रखवाली की, रात के अँधेरे
में छत पर लेट तारों और हवाई जहाज़ में अंतर करना सीखा। घर वो जहां नाम नहीं
रिश्ते जिए।
Saturday, September 26, 2015
Thursday, September 24, 2015
यादें ना जाएं....2
बचपन से सुनती आई,
हमारे गांव ‘नेहरा’ को उसकी समृद्धि और विकास के कारण मिथिला का पेरिस कहा जाता है। संयोग ऐसा कि
इस बार जब दो दशक बाद गांव जाना हुआ तो पेरिस समेत कुछ और यूरोपीय देशों की यात्रा
से तुंरत लौटी थी। सो बचपन से सुनी गई तुलना और प्रत्यक्ष में झलकते विरोधाभास और
व्याजोक्ति ने बरबस मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया। पटना से नेहरा तक सड़क के रास्ते
बदलाव टुकड़ों में दिखा। पटना से निकले और एक ओर से आधे टूटे गांधी सेतु पर ज्यादा
ट्रैफिक नहीं मिला तो ड्राईवर ने चैन की सांस ली। हाजीपुर और मुज़फ्फरपुर के
रास्ते कमोबेश वैसे ही लगे। मुज़फ्फरपुर से सकरी की सड़क लेकिन विकास का उद्घोष कर
रही थी। सकरी स्टेशन के बाद के सात किलोमीटर कैनवास के उस कोने से लगे जिसके होने
ना होने का चित्रकार को आभास ही नहीं रहा।
Friday, September 18, 2015
यादें ना जाएं...
19 साल बाद अपने गांव जाना हुआ। ज्यादातर रिश्तेदारों से शादी के बाद पहली बार
मिलना हुआ, कुछ से तो
दो दशकों में पहली बार। आख़िरी कस्बे के जर्जर रेलवे स्टेशन को छोड़ जब हमारी
टैक्सी चली मुझे डर लगा कहीं रास्ता भूल आगे ना बढ़ जाऊं। इन रास्तों पर तो कुछ
नहीं बदला था, बस इन सालों में मेरी दुनिया बदल गई थी। लेकिन हमारे टोले वाली गली
ने सौ मीटर पहले ही मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया मुझे। इन रास्तों से पहचान के सारे
तार खुद-ब-खुद जुड़ गए, सालों के फासले एक पल में मिट गए। गली के मुहाने पर दो
काका कड़ी धूप में इंतज़ार कर रहे थे हमारा, चूंकि पता था साथ में जमाई बाबू भी आ
रहे हैं। जमाइयों के लिए उमड़े इस अनावश्यक प्यार से पता नहीं क्यों अब मुझे जलन
नहीं होती क्योंकि इसके मूल में बेटी के लिए खूब सारा प्यार और उससे कहीं ज्यादा उसकी
फिक्र होती है।
Saturday, September 12, 2015
योर च्वाईस बट कंडीशन्स अप्लाई
एक बार मेरे घर पर,
मेरे हाथ का बना तीन कोर्स का खाना खाकर डकार मारते हुए एक परिचित ने कहा, ‘वैसे आप खाना-वाना बनाने
टाइप लगती नहीं हैं।’
‘क्या मतलब?’ उनसे ज्यादा बेतकल्लुफ नहीं थी सो थोड़ा अटपटा
लगा।
‘पढ़ी-लिखी, मॉडर्न हैं आप, मीडिया जैसी
इंडस्ट्री से हैं, विदेश-उदेश भी रह आई हैं ऐसी फ्री थिंकिंग लड़कियां आजकल कहां
किचन-विचन का काम करती हैं।’ उन्होंने अपना बेतकल्लुफ अंदाज़ जारी रखा।
Wednesday, September 9, 2015
ना खाएंगे ना....
कुछ साल पहले हमारे एक घर की रजिस्ट्री के लिए बिल्डर का मेल आया। आप 25 हज़ार रुपए कैश और बाकी के चेक के साथ रजिस्ट्री ऑफिस पहुंचिए। पता चला एक दिन में तीस लोगों को बुलाया जा रहा है। हमने हिसाब किया, कैश 11 हज़ार लगने चाहिए थे, फिर 25 लाने क्यों बोला? अब समझने को कोई रॉकेट साइंस तो था नहीं इसमें, सो थोड़ी बेचैनी हुई। खैर, पूरे पैसे लेकर पहुंचे। बिल्डर ओर से एक वकीलनुमा सज्जन थे वहां मदद के लिए।
लोगों से 25 लेकर 11 की रसीद काटी जा रही थी, और आधे दिन की छुट्टी पर आए ज्यादातर कॉर्पोरेट सेवक हड़बड़ाए से अपना काम करवा रहे थे।
सत्या ने (मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर) पूछा,
“सर 14 ज्यादा क्यों दें हम?”
“वो इन लोगों के खर्चे-पानी के लिए”, आराम से जवाब आया।
लोगों से 25 लेकर 11 की रसीद काटी जा रही थी, और आधे दिन की छुट्टी पर आए ज्यादातर कॉर्पोरेट सेवक हड़बड़ाए से अपना काम करवा रहे थे।
सत्या ने (मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर) पूछा,
“सर 14 ज्यादा क्यों दें हम?”
“वो इन लोगों के खर्चे-पानी के लिए”, आराम से जवाब आया।
Friday, September 4, 2015
नींव की पहली ईंट
शनीचर सर। मेरी यादों में सिर्फ उनकी कहानियां
हैं, ढेर सारी। ना उनकी शक्ल ठीक से याद है ना आवाज़। बस जबसे यादें सहेज कर रखने
की उम्र शुरु हुई है, तब से ना जाने कितनी बार उनका नाम सुना है। उनकी कहानियां
सुनी हैं, जिसमें वो होते हैं, मैं होती हूं और होती हैं मेरी शैतानियां।
उनसे मेरा रिश्ता कुछ यूं जुड़ा जब चार साल की
बेहद बातूनी और बला की शरारती, लाड़ से बिगड़ी अपनी पोती को शाम के वक्त एक जगह
पढ़ने बिठा पाने भर के लिए मेरे दादाजी को एक ट्यूटर की ज़रूरत महसूस हुई और वो
मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंचे। प्रिंसिपल सर भी मुझसे वाकिफ रहे होंगे
इसलिए उन्होंने इस काम के लिए सबसे योग्य शनीचर सर को मेरे घर जाने को कहा। मेरे
पहले गुरु शनीचर सर खुद बस मिडिल पास थे, लेकिन छोटे बच्चों के फेवरिट। धैर्य गज़ब
का रहा होगा उनमें।
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