Thursday, August 27, 2015

परवरिश हमारी

अपने अमेरिकी और यूरोपीय दोस्तों से मैने कई बार बच्चों की परवरिश के भारतीय तौर-तरीकों की आलोचना सुनी है, हालांकि उतनी ही बार मैं अपने संस्कार और अपने पारिवारिक मूल्यों का हवाला देते हुए उनसे उलझी भी हूं। फिर भी एक अमेरिकी दोस्त की ये टिप्पणी मेरे अंदर गहरे पैठ गई है कहीं,
“You don’t actually bring up your kids, you turn them into a bundle of emotional fools”
जज़्बाती होकर विदेशियों से इस मुद्दे पर मैं अभी भी लड़ने तो तैयार हूं क्योंकि तर्क-वितर्क करना मेरे व्यक्तित्व में है लेकिन एक अपने भीतर झांकने पर इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर सकने का दोमुंहापन मेरे अंदर नहीं है। 
तुम्हें बड़ा करने में हमनें अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी।
हमने हमेशा तुम्हारी सुविधाओं के आगे अपनी ज़रूरतों को अनदेखा किया।
क्या मां-बाप होने के नाते हमारा तुमपर इतना भी अधिकार नहीं? क्या तुम हमारी इतनी सी बात नहीं मान सकते?

Saturday, August 22, 2015

काश

कुछ यादें अंतर्मन की तलहटी में जाकर बैठ जाती हैं और हमेशा के लिए जम जाती हैं वहां। जब भी मन ने हिलोरें लीं उछल कर आ गईं नज़रों के सामने। पता नहीं कितने साल बीत गए...शायद बीस बाईस या उससे भी ज्यादा। बारहवीं की परीक्षा देकर मैं रिजल्ट निकलने का इंतजार कर रही थीं। नानी कई हफ्तों से हमारे घर में ही थीं। ज़िंदगी के आखिरी कुछ दिन अपनी सबसे लाडली संतान, मां, के साथ बिताने के लिए अपने बेटे बहुओं की नाराज़गी झेल कर भी आ गईं थी पापा के एक आग्रह पर। और तब से मां की सारी दुनिया नानी के बिस्तर, उनकी दवाईयों और उनकी पसंद की एक-एक चीज़ बनाने के इर्द गिर्द सिमट गई थी। मेरी परीक्षा कब शुरु हुई कब खत्म हो गई उन्हें शायद पता भी नहीं चला। परीक्षा खत्म होते ही मेरा भी सारा वक्त उन दोनों के साथ गुज़रने लगा था। मां तो वैसे भी मेरे लिए चुंबक जैसी थीं, मेरे अस्तित्व का केन्द्र। उनकी आवाज़ के बगैर मेरी सुबह नहीं होती, उन्हें बगल में बिठाए बिना मेरे हलक से कौर नहीं उतरता। मां ने कभी कान भी खींचे या थप्पड़ भी मारा तो भी मां-मां करके ही रोती। तुम दोनों मां-बेटी पिछले जन्म में या तो कंगारू या फिर बंदरिया रहे होगे...पापा का फेवरेट डायलॉग था ये। और वही मां अब बंट रही थी मुझसे...अपनी मां के लिए। रिज़ल्ट और कॉलेज एडमिशन की चिंता नहीं होतीं तो कई बार ठुनक भी चुकी होती मैं मां के सामने इस बात की शिकायत लेकर।

Sunday, August 16, 2015

तोहफा

बिल्लियों के झगड़ने की आवाज़ से नींद खुली तो मनोज को कुछ मिनट लगे ये समझने  में कि अभी सुबह ठीक से हुई भी नहीं है। चौकी से नीचे उतरने की कोशिश की तो ध्यान आया कि वो तो छत पर गद्दा बिछा कर सोया है। रात उमस इतनी बढ़ गई थी कि कमरे में दो घड़ी भी बिता पाना मुश्किल हो गया था। वरना कुल डेढ़ महीने पुरानी बीवी को अकेला छोड़ने की गलती कोई सरफिरा ही कर सकता था। सविता का ख्याल आते ही वो बिजली की तेज़ी से उठा। साढ़े पांच से ज्यादा नहीं बजे होंगे, मुकेश सात बजे के पहले ड्यूटी से वापस नहीं आएगा। उसे भी तैयार होकर ड्यूटी पर जाने में घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा। जबसे सविता आई है, खाना बनाने का घंटा तो वैसे ही बच जाता है, और गर्मियों की छुट्टी का इतना फायदा तो है कि साहब के बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए सुबह आठ बजे ड्यूटी पर नहीं पहुंचना पड़ता। अभी अगर नीचे चला गया तो घंटे डेढ़ घंटे तो.....पत्नी का ख्याल आते ही उसके शरीर में झुरझुरी सी हो आई, या शायद सुबह के पहले ठंडे झोंके की वजह से हुआ हो...

Saturday, August 8, 2015

वो एक दिन....

बरसाती पानी से बजबजाती गलियां नालियों से एकाकार हो गई थीं। बाहर बादल अब अपना रहा सहा ज़ोर निचोड़ रहे थे एक-एक टपकती बूंद के साथ और अंदर जून की उमस में चाय का ग्लास पकड़े उनके कांपते हाथ पसीने से सराबोर हो रहे थे।
चाची....किशोर शायद बड़ी देर से खड़ा था सामने या शायद अभी-अभी आया।
संजू भैया का फोन आया था...दिल्ली पहुंच गए हैं...दोपहर तक पटना भी आ जाएंगे.....पटना में गाड़ी का इंतज़ाम हो गया है। मुन्ना कलकत्ता उतरेगा शाम तक, सुबह तक ही पहुंच पाएगा। आप एक बार घर हो आते तो....बबली दी, जीजाजी पहुंचने वाले हैं घंटे भर में....मुज़फ्फरपुर से फोन आया था।
इस बार आंखों से टपकती बूंद को चाय के ग्लास तक पहुंचने से रोक नहीं पाई वे। तीसरा दिन है आज, ना बच्चे अपने घरौंदों से यहां तक का दूरी तय कर पाए हैं ना वो ही शीशे से उस पार बिस्तर तक दस क़दम का फासला तय कर पाई हैं। दिन, घंटे, मिनट सब जैसे एक वृत में बंध शून्य में अटक गए हैं और आरबी मेमोरियल के आईसीयू के बाहर सहमे खड़े हैं उनके साथ। ना दिमाग काम कर रहा है ना शरीर। किशोर एक टांग पर खड़ा सब संभाल रहा है।

Sunday, August 2, 2015

दोस्ती......यारियां.....बेईमानियां

उनका असल नाम कुछ और है ये हमें बहुत साल बाद पता चला। दादाजी उन्हें यारबुलाते थे और इसलिए वो हमारे लिए बस यार बाबा थे और पापा के यार काका। उस समय तक दादाजी कई शहरों में घूम-घामकर अपनी तीस साल की नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अपने शहर यानि दरभंगा में, बुढ़ापे के दिन बिताना चाहते थे। यार बाबा भी तब तक बिना एक दिन नौकरी पर गए और बिना दरभंगा से बाहर निकले भी बूढ़े हो चले थे और अपने स्कूल के दिनों के, पचास साल पुराने, अंतरंग दोस्त को वापस पाकर बड़े खुश थे। चूंकि दादाजी अपनी नौकरी की तरह अपने रिटायरमेंट को भी एन्जॉय करना चाहते थे, एकदम किंग साईज़, सो सुबह शाम उनके दोस्तों की पपलू की बाज़ी जमती हमारे बरामदे पर जो यार बाबा के बिना कभी पूरी नहीं हो पाती।